साहित्य

भीगा  भीगा मन

वीणा गुप्त

दूर तक तपन का सिलसिला है। धरती  सुलग रही है,अकुला रही है। सारी हरियाली पहले मुरझाई, फिर सूखी और लुप्त हो गई।लगता ही नहीं कि कभी यहाँ कलियाँ  थीं जो पवन के हाथों सुगंध भरे संदेशे भेजती थीं। यह नेह निमंत्रण  पाकर चली आती थीं, भ्रमरावलियाँ, रंग बिरंगी तितलियाँ। कोयल भी पंचम गा लेती थी। इंद्रधनुषी फूलों का क्रम क्षितिज तक  फैला रहता था। नंदन कानन को लजाती थी यहाँ की धरती। दृष्टि का उत्सव था प्रतिपल।

लेकिन अब? मन भीग भीग उठता है यह देखकर। बदलाव का यह भयावह दृश्य सिहरा देता है। क्या सारी सुंदरता यूँ ही कुरूपता में बदल जाएगी? क्या विनाश यूँ  ही तांडव करता रहेगा यहाँ पर? प्रश्न अनुत्तरित  नहीं रहता। न जाने कहाँ , अंतस के कोने में बैठा आस-विहग मंद स्वर में चहकता है,”यह आशंका क्यों?” विनाश और निर्माण ,रूदन और हास,
पतन और उत्थान,तांडव और लास्य  सृष्टि का नियम है। यहाँ भी दृश्यांतर अवश्य होगा।बिहारी का ‘अलि’ गुलाब मूल में यूँ ही तो अटका नहीं है,कुछ आस लगाए है—-

यहि आस अटक्यो रहत,
अलि  गुलाब के मूल।।
आवहि फेरि वसंत रितु,
इन डारन वै फूल।।

तो वसंत का आगमन तो पक्का है। कब आएगा वसंत? तभी न,जब ताप   इतना  बढ़ जाएगा कि सागर का जल  मेघों का रूप धारेगा। सजल मेघ धरती की  तपन को  देखकर आर्द्रता से  उस पर झुक जाएँगे, भर  देंगे वे सभी दरारें ,जो धरती का कलेजा फटने से बनी हैं। धरती समतल  हो जाएगी। चिकनी और सौंधी मिट्टी से शरारती  बच्चों से  नगिन अंकुर  झाँकेंगे। एक दूसरे को देखकर हँसेंगे ,शरमाएँगे। बढेंगे, पल्लवित -पुष्पित होंगे। वतास फिर सुरभि के संदेशे भेजेगी। फिर पर्व मनेगा। मन भीग- भीग उठेगा,यह देखकर।

आज मन भीगता है,यह देख कर कि कैसे दिक्- दिगंत तक शांति प्रसारित करने वाली ,वसुधैव कुटुम्बकम् का साम्य गीत गाने वाली ,परोपकार और करूणा से सिक्त देश की संस्कृति-लतिका आज मुरझाने लगी है। संकीर्णता
,साम्प्रदायिकता, हिंसा की गर्म लूएँ चल रही हैं। अनाचार और भ्रष्टाचार  का सूर्य मध्याह्न में है। अपनी किरण-शलाकाओं से धरती माँ का वक्ष जला रहा है।चोट पर चोट पड़ रही है। न जाने कहांँ कहाँ से, कैसे कैसे विवाद उठने लगे हैं। देश -परिवार फिर महाभारत की ओर बढ़ रहा है।

आज भी मन भीगता है जब दिनभर के कठोर  श्रम के बाद भी भूख नहीं मिटती। बचपन बिलखता है।योग्यता का सम्मान नहीं। प्रतिभा के मार्ग मेंअनेकानेक व्यवधान हैं। परिवार संयुक्त से एकाकी हो रहे हैं। ‘मैं’ हावी होता जा रहा है।अपने से परे कुछ दिखाई ही नहीं देता । बूढ़े माता-पिता बोझ बन गए हैं। नारी, प्रगति के आकाश में ऊँची छलाँगें लगाने पर भी,धरती पर अनेक प्रकार से प्रताड़ित हो रही है। मन भीग -भीग उठता है समाज का यह दोगलापन देखकर। प्रवंचना और ढोंग के आकर्षक मुखौटों को देखकर। यौवन खोखले दंभ में,
भौतिकता की चकाचौंध में,पराई पहचान में अपनी पहचान भुला, अहंकार में चूर हो घूमता है। अपनी भाषा, देश,संस्कृति,परिवार सब उसे तुच्छ दिखाई देते हैं।
मन तब भी भीगता है,जब  ऊँचे -ऊँचे मंचों से देश और मानवता के अभूतपूर्व विकास
की घोषणा की जाती है। यथार्थ वस्तुस्थिति को नकार कर , अंतरिक्ष अभियान किए जाते हैं। खेल -प्रतियोगिताओं के आयोजन में कुबेर के खजाने लुटा दिए जाते हैं। बारूद मानवता का रक्षक बना बैठा है। आतंकवाद रोज नए चेहरे लेकर प्रकट हो रहा है।जनता का जीवन असुरक्षित है।
कहीं कोई शांति कीजिए नहीं, मात्र आशंका,कुंठा,संत्रास और तनाव हमारी नियति बन गया है। सभी एक लक्ष्यहीन अंधी दौड़ में शामिल हो गए हैं। न साधन की परवाह है,न उचित-अनुचित का विवेक। विडम्बना यह,कि यही गति का पर्याय बन गया है।

मन भीगता है यह देखकर  भी कि नदी,पर्वत, पर्व,वन ,जहाँ गोपाल, गौ- गोपों के साथ विचरता था।  गोवर्धन, जो आपद् विपद् में शरण बनता था,यमुना का किनारा ,जो रास- महारास का साक्षी था,आज सूना पड़ा है। जंगल उजड़ गए हैं। नदियाँ मैला ढो रही हैं। आश्चर्य होता है कि प्रकृति की पूजा करने वाला देश,आज प्रकृति के प्रति इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है।

लेकिन एक आस है ,मन भीग रहा है।यह भीगा मन कुछ तो करेगा ही। बिना  कुछ किए तो  आँसू बहाना बेकार है। पीड़ा सामने है,उसका कारण भी जानते हैं,तो क्या  पीड़ा के निराकरण के लिए कोई आएगा नहीं।विश्वास है,हमें देश के प्रबुद्ध मानस पर।जो  इस भीगे मन की पीड़ा को दूर करने के लिए कुछ ठोस कार्यवाही करेंगे।
नैतिकता,मानव मूल्यों, समानता और प्रकृति के नए पुरोधा,इसी  भीगी मानस- माटी में जन्म  लेंगे। सभी अभावों से मुक्ति दिलवाएंगे।देखो न, कितनी  मशालें देदीप्यमान  हो रही हैं विश्व भर में।
तमस के समर्थकों! रास्ता छोड़ो क्योंकि प्रकाश का ज्योतित रथ तीव्रगति से बढ़ने लगा है। विश्व सरोवर में मानवता-जलज विहँसने लगा है।जलज- पत्रों पर भीगे मन के अश्रु ,मोती बन चमक रहे हैं।भीगा-भीगा मन नई ,करूणा से ओत-प्रोत,सृष्टि करना चाहता है ,ऐसी सृष्टि जो संपूर्ण जग के लिए सत्य,शिव और सौंदर्य के अनंत वातायन खोलेगी।
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वीणा गुप्त
नई दिल्ली

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