साहित्य

भूमिजा

वीणा गुप्त

भूमिजा
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तमसा तट पर बैठी सिया,
मन हुआ अतीत संचार।
पुष्प वाटिका में देखा जब,
रूप राम का सुभग अपार।

प्रथम दृष्टि में सिया के उर में,
हुई प्रणय-वीणा झंकार।
माँ गौरी में दिया सिय को,
पूर्ण मनोरथ का उपहार।

सिय स्वयंवर हुआ आयोजित
विकट प्रण धनुर्भंग का धार।
कोई न पाया तोड़ धनु जब,
मर्म विदारक, पिता उद्गार।

क्षत्रिय विहीन धरा हुई यह,
सब बैठे पराजय  स्वीकार।
पिता जनक के वचन सुन,
लखन मन हुआ रोष संचार।

धनुष-भंग तब किया राम ने,
गुंजित हुई प्रचंड टंकार।
बरसे नभ से सुमन बहुविध,
हुई राम की जय जय कार।।

सखिन सहित चली सिया,
लिए हाथ अनुपम जय हार।
अवध कण कण में उमंगित,
हुआ हर्ष का जलधि अपार।

तात मात पुरजन मुदित हो ,
वसन ,रत्न,मुक्ता रहे वार।।
बीत रहे सुख दिवस अवध में,
इक दिन दशरथ कियो विचार

देहुं राम को राज्य अवध का,
हर्षित सब पा शुभ समाचार।
सजने लगी अवध की गलियाँ,
घर घर बंध गए तोरण द्वार।

आई वेला राजतिलक की
होने  लगे बहु मंगलाचार ।
कुटिल नियति ने चली चाल,
रस-रंग हुआ सभी जल क्षार।

राम लखन संग वन को चल दीं।
वल्कल धार सिय सुकुमारि।
तिन पग परसे माँ धरणी का।
संकुचित उर करे हाहाकार।।

चित्रकूट की सुखद पर्णकुटी,
प्रकृति का मनहर श्रृंगार।
संत समागम से नित ही,
पाए ज्ञान -धर्म  विस्तार।

सेवाभाव लखन लाल का, वन्यजनों का निश्छल प्यार।
खग-मृग,वन सब लगें सखा,
कण-कण सुखद हर्ष संचार।

सहसा बदल गया दृश्य सब ,
चला काल ,चाल विकराल।
स्वर्ण-मृग की वह मरीचिका,
लाई विरह की व्यथा अपार।

वह मोह स्वर्ण माया-मृग का,
आसुरी छल, प्रपंच प्रहार।
किया हरण रावण ने सिय का,
जीवन बना रुदन साकार।

शौर्य अतुल जटायु तात का,
रावण ने किया वज्र प्रहार।
कटे पंख,क्षत हुए जटायु,
गिरे भूमि करके चीत्कार।

वह अशोक वाटिका भव्य,
रावण का त्रास भरा संसार।
वह आगमन हनुमान का,
वह प्रिय-मुद्रिका उपहार।

आश्वासन दिया बजरंग ने,
किया सिया पीड़ा निस्तार।
आस ,विश्वास  हुआ प्रबल
श्रीराम करेंगे अब उद्धार ।

सेतु बंध कर राम सैन्य ले,
आए तुरतहि सागर पार,
प्रचण्ड युद्ध रावण राम का,
पाया राम विजय उपहार।

अग्नि परीक्षा ले सीता की
राम करी सिया अंगीकार।
सब लौटे फिर अवधपुरी में
मना पावन दीप त्यौहार।

श्रीराम विराजे सिंहासन पर,
हुआ अवध में सुख-विस्तार।
सीता के सौभाग्य सूर्य को
लगा अशुभ ग्रहण तत्काल।।

तजी राम ने सिया प्राण प्रिया
किया प्रजामत को स्वीकार।
राज रानी सीता बनीं तब,
दैन्य-विषाद प्रतिमा साकार।

एकाकी वनवासिनी सीता ,
पीड़ा असह्य दुर्वह भार।
नारी अंतस को कब समझा ,
यह पाषाणी निष्ठुर संसार?

मौन रही,सहा सब कुछ,
प्रवहित की ममत्व की धार।
सर्वस्व समर्पित किया सदा,
पर क्या पाया कोई प्रतिकार।

तमसा तीर बैठीं वैदेही ,
लिए अश्रुपूरित युग नैन।
कैसे धीरज दे अपने को,
मन कितना व्याकुल,बेचैन।

माँ धरणी ले क्रोड में मुझे,
दे अपनी तनया को प्यार।
दे माँ अपनी अतुलित शक्ति ,
कर पाऊँ हर संकट पार।।

हुआ भूमिजा को सहसा ही,
अपनी आत्मशक्ति का बोध।
पोंछे अपने अश्रु हाथ से,
हटा गति का सब अवरोध ।

धरा सुता वह फिर उठी,
मन लिए अडिग विश्वास।
नहीं नितांत अकेली है वह ,
गर्भ धरे रघुकुल की आस।।

देगी वह अब प्रसन्न मना
रघुकुल को निज संतति दान।
उसका यह बलिदान बनेगा
उसकी चिर अमिट पहचान।।

नहीं चाहिए उसे किसी की,
दया,सांत्वना या सत्कार।
युगों-युगों तक ऋणी रहेगा,
पा रघुकुल उसका उपहार।।

दृढ़ मना चल पड़ींं सिया,
अदृष्ट नूतन पथ की  ओर।
छंटा नैराश्य का तमस घन,
मुस्काई नव आशा भोर।

वीणा गुप्त
नई दिल्ली ।

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