साहित्य

डॉ विद्यासागर का सद्य प्रकाशित ग्रंथ ‘सत्य कौन? तिलक अथवा आम्बेडकर! विलुप्त प्रज्ञा का महाकोष’ है ज्ञान के महासंगम का पुनर्जागरण

प्रोफेसर (डॉ0) प्रसेनजीत बिस्वास

डॉ विद्यासागर का सद्य प्रकाशित ग्रंथ ‘सत्य कौन? तिलक अथवा आम्बेडकर! विलुप्त प्रज्ञा का महाकोष’ है ज्ञान के महासंगम का पुनर्जागरण

डॉ. विद्यासागर उपाध्याय का अद्वितीय ग्रंथ “सत्य कौन? — तिलक अथवा आंबेडकर! : विलुप्त प्रज्ञा का महाकोष” भारतीय और वैश्विक प्रज्ञा के संगम का विलक्षण उदाहरण है। दर्शनशास्त्र का इतिहास उन महापुरुषों के प्रश्नों, संघर्षों और अनुभूतियों से निर्मित होता है, जो मानव-चेतना को सतही सीमाओं से उठाकर सत्य के प्रत्यक्ष अनुभव की ओर ले जाते हैं। यह ग्रंथ न केवल दार्शनिक परम्पराओं का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत करता है, बल्कि उपनिषदों के “एकमेव अद्वितीयं सत्यम्” की धुरी पर विविध परम्पराओं को संयुक्त भी करता है। यह केवल एक तुलनात्मक दार्शनिक ग्रंथ नहीं, अपितु विश्व-मानस की एक दार्शनिक जीवनी और भारतीय मनीषा की गौरव-गाथा है।
इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता इसकी विराट व्यापकता और संतुलन है। जहाँ अधिकांश दार्शनिक कृतियाँ किसी एक विचारक या एक परम्परा तक सीमित रहती हैं, वहीं डॉ. उपाध्याय ने 40 वैश्विक मनीषियों को एक ही विचार-दिशा पर स्थापित किया है, जहाँ वे परस्पर स्पर्धी नहीं बल्कि संवादी दिखाई देते हैं। झ्वांग-त्ज़ु का ताओवाद बर्द्यायेव के अस्तित्ववादी ईश्वरभाव से वार्तालाप करता है, माइमोनिडीज़ की तर्कपूर्ण ईश-चिन्तना दयानंद की वेद-प्रधान प्रतिज्ञा में विलीन होती है, दिग्नाग का प्रत्यक्षवाद सोमेश्वर भट्ट की श्रद्धा के समीप खड़ा रहता है, हेगेल का द्वन्द्ववाद अल-ग़जाली और इक़बाल की आध्यात्मिकता को नई रोशनी देता है। तिलक का कर्मयोग, आंबेडकर का सामाजिक न्याय और कबीर का निर्गुण मानवधर्म एक ही सत्य की भिन्न ज्योतियाँ बनकर उभरते हैं। विवेकानन्द, अरविन्द, रमण और रामतीर्थ आत्मचेतना की त्रयी का निर्माण करते हैं। इन विचारकों को लेखक ने किसी वैचारिक टकराव में नहीं, बल्कि एक अंतर्ज्ञानपूर्ण महा-संवाद में पिरोया है—यह इस ग्रंथ की अतुलनीय उपलब्धि है।
“विलुप्त प्रज्ञा का महाकोष” जैसा उपशीर्षक केवल काव्यात्मक नहीं, बल्कि अत्यन्त सार्थक है। डॉ. उपाध्याय मानते हैं कि मानव-चेतना का वह सूक्ष्म प्रकाश, जो वैदिक ऋषियों, संतों, योगियों और दार्शनिकों के माध्यम से प्रवाहित था, आधुनिकता के शोर-गुल में कहीं दब गया था। यह ग्रंथ उसी प्रकाश को पुनः संकलित करता है, उसे विविध स्रोतों से जोड़ता है और आधुनिक बौद्धिक जगत के समक्ष पुनः प्रतिष्ठित करता है। यह एक प्रकार का दार्शनिक पुनरुद्धार-ग्रंथ है, जैसा आधुनिक भारत में अत्यल्प विद्वान ही रच पाए हैं।

भारत के शीर्ष प्रशासनिक नेतृत्व तथा अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में विशिष्ट स्थान रखने वाले अखिलेश मिश्र, जो वर्तमान में आयरलैण्ड में भारत के राजदूत और भारतीय ज्ञान-परम्परा के एक प्रकाण्ड विद्वान हैं, तथा पड़ोसी राष्ट्र नेपाल के सुप्रतिष्ठित दार्शनिक, विद्यावाचस्पति अजय कुमार झा, जिनका दक्षिण एशिया के दर्शन-जगत में अत्यंत ऊँचा कद है—दोनों द्वारा व्यक्त शुभकामनाएँ इस ग्रंथ की प्रामाणिकता और व्यापक दार्शनिक महत्त्व को बहुस्तरीय प्रमाण प्रदान करती हैं। राजदूत अखिलेश मिश्र अपने संदेश में भारतीय अध्यात्म की उपनिषदात्मक दृष्टि, इन्द्रियों की सीमाओं, आत्मा के साक्षात्कार और मानवता के कल्याण हेतु सहृदयता-सहानुभूति के वैश्विक संदेश को रेखांकित करते हुए डॉ. विद्यासागर उपाध्याय के इस ग्रंथ को ज्ञान की प्राचीन भारतीय परम्परा का समकालीन प्रतिष्ठापन बताते हैं। दूसरी ओर, विद्यावाचस्पति अजय कुमार झा अपनी शुभाशंसा में इस कृति को “विविध दर्शन-धाराओं के महासंगम” का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ घोषित करते हैं, जिसमें झ्वांग-त्ज़ु से लेकर टैगोर तक, दिग्नाग से लेकर सोमेश्वर भट्ट तक, हेगेल से लेकर अल-ग़जाली तक, तिलक से लेकर आंबेडकर तक—चालीस मनीषियों की प्रज्ञा को अद्वितीय संतुलन से एक ही वैचारिक पट पर संयोजित किया गया है। इन दोनों महामानवों द्वारा व्यक्त यह सामूहिक मत इस बात की पुष्टि करता है कि “सत्य कौन? — तिलक अथवा आंबेडकर! : विलुप्त प्रज्ञा का महाकोष” केवल एक पुस्तक नहीं, बल्कि भारतीय और वैश्विक प्रज्ञा के पुनर्जागरण की वह ज्योति है, जिसके दीर्घकालिक प्रभाव को न केवल भारत, बल्कि समूचा बौद्धिक विश्व स्वीकार करने के लिए बाध्य होगा।

ग्रंथ की विषय-सूची स्वयं एक दार्शनिक मानचित्र का रूप ले लेती है। दिग्नाग और सोमेश्वर भट्ट के माध्यम से तर्क और श्रद्धा की द्वन्द्वधारा, हेगेल और अल-ग़जाली के द्वारा आदर्शवाद और रहस्यवाद का संघर्ष, ओशो और करपात्री में स्वातंत्र्य और अनुशासन का द्वंद्व, तिलक और आंबेडकर में कर्म और न्याय का प्रश्न, कृष्ण–पतंजलि–गोरखनाथ की योग-त्रयी, अष्टावक्र और कपिल का अद्वैत–सांख्य विमर्श, इक़बाल और टैगोर का चेतनावाद, तथा कबीर और फिरदौसी का मानवधर्म—यह सब मिलकर एक ऐसे विश्वविद्यालय का रूप लेते हैं, जिसे एक ही ग्रंथ में समाहित कर पाना लगभग असंभव प्रतीत होता है।
डॉ. उपाध्याय की भाषा विद्वत्ता और काव्यात्मकता का अद्भुत संगम है। यह गंभीर भी है और सहज भी; ओजस्वी भी है और आत्मीय भी। कहीं इसमें उपनिषदों की गंभीरता है, कहीं कबीर की निर्भीकता और कहीं विवेकानन्द की तेजस्विता। ऐसा संतुलन अत्यंत दुर्लभ है।
ग्रंथ का शीर्ष अध्याय—तिलक बनाम आंबेडकर—इसे विशिष्ट बनाता है। लेखक यह सिद्ध करते हैं कि तिलक और आंबेडकर विरोधी ध्रुव नहीं हैं, बल्कि एक ही सत्य की दो अनिवार्य दिशाएँ हैं—एक कर्म के माध्यम से, दूसरी न्याय के माध्यम से। यह प्रस्तुति न विवाद उत्पन्न करती है, न पक्षपात। यह सम्यक्, संतुलित और परिपक्व वैचारिक दृष्टि का उत्तम उदाहरण है।
यह ग्रंथ दर्शन के छात्रों के लिए अभिनव पाठ्यपुस्तक, शोधकर्ताओं के लिए विश्वसनीय संदर्भ-ग्रंथ, साधकों के लिए मार्गदर्शक दीपस्तम्भ और सामान्य जिज्ञासुओं के लिए बोध का प्रथम द्वार बन सकता है। विश्वविद्यालयों में तुलनात्मक दर्शन, चेतना-अध्ययन, धार्मिक दर्शन और भारतीय ज्ञान-परम्परा के अध्ययन हेतु यह पुस्तक मानक ग्रंथ के रूप में स्थापित की जा सकती है।
यहाँ थोड़ा विस्तृत, पर फिर भी संतुलित और सौम्य आलोचनात्मक पैरा प्रस्तुत है—जिसे ग्रंथ की प्रशंसा-प्रधान समीक्षा के बीच रखने पर वह समग्र स्वरूप को बिना क्षति पहुँचाए स्वाभाविक आलोचना का आयाम प्रदान करेगा:
यद्यपि यह ग्रंथ अपनी व्यापकता, तुलनात्मक दृष्टि और दार्शनिक संवाद की महत्त्वाकांक्षा के कारण अद्वितीय प्रतीत होता है, परन्तु इसकी वही विराटता कभी-कभी पाठक के लिए एक चुनौती भी बन जाती है। अनेक गहन दार्शनिक धाराओं—ताओवाद, अद्वैत, प्रत्यक्षवाद, अस्तित्ववाद, ईश-तत्त्वमीमांसा और भक्ति—को एक सूत्र में संयोजित करते हुए कुछ अध्याय ऐसे हैं जहाँ तर्क-प्रवाह अत्यधिक गहन और तीव्र हो जाता है, जिससे साधारण पाठक को अवधारणाओं के बीच सहज गति बनाए रखना कठिन लग सकता है। इसी प्रकार, लेखक द्वारा विविध परम्पराओं के बीच स्थापित सामंजस्य-रेखा कभी-कभी इस सीमा तक विस्तृत हो जाती है कि कुछ मूलभूत मतभेद—जैसे, सांख्य का द्वैत और अद्वैत का अभेद, बौद्ध शून्यवाद और वेदांत के ब्रह्मतत्त्व, या तिलक के कर्मयोग और आंबेडकर के संवैधानिक न्याय—अपने वास्तविक प्रतिरोध-बिंदुओं पर उतनी तीक्ष्णता से उभर नहीं पाते। यह आलोचना पुस्तक की गुणवत्ता पर प्रश्न नहीं उठाती, बल्कि उसके महा-विस्तार और उसे एक ही ताने-बाने में बाँधने की स्वाभाविक कठिनाइयों की ओर संकेत भर करती है, जो किसी भी ऐसे उच्च कोटि के ग्रंथ का अपरिहार्य परिणाम माना जा सकता है।

अन्ततः, यह ग्रंथ केवल एक पुस्तक नहीं, बल्कि एक दार्शनिक उद्घोषणा है। यह स्मरण कराता है कि सत्य किसी संस्कृति का बंधुआ नहीं, पथ भिन्न हो सकते हैं पर लक्ष्य नहीं। यह आधुनिक मनुष्य को पुनः आत्मा की ओर लौटने का निमंत्रण देता है। डॉ. विद्यासागर उपाध्याय ने जिस संतुलन से ऋषियों, दार्शनिकों, योगियों, तर्कविदों और संतों को “विलुप्त प्रज्ञा” के एक ही आकाशतल में प्रतिष्ठित किया है—वह आधुनिक भारतीय विचारधारा में एक महान योगदान है। यह ग्रंथ निश्चय ही भारतीय दर्शन की आगामी पुनर्जागरण-गाथा की आधार-शिला सिद्ध होगा—ऐसा विश्वास दृढ़ता से किया जा सकता है।

समीक्षक
प्रोफेसर (डॉ0) प्रसेनजीत बिस्वास
एसोसिएट प्रोफेसर, फिलॉसफी डिपार्टमेंट,
नॉर्थ-ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी (NEHU), शिलांग

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