साहित्य

धुँआ मन की व्याकुल धारा

डाॅ. सुमन मेहरोत्रा

धुँआ न केवल जलन चिन्ह, यह अंतर्मन की भाषा है,
जहाँ विचार सुलगते रहते, वहाँ मौन भी परिभाषा है।
जो आँखों में चुभता, वह बाह्य जग का भ्रम नहीं,
यह मन की व्याकुल ज्वाला है, जिसका छोर कम नहीं।

हर युग में कोई जला है, अपनी आकांक्षा की आग में,
कोई तपा है लोभ में, कोई सत्य की अनुराग में।
धुँआ वहीँ से उठता है, जहाँ मन ने आग लगाई,
कभी यह भस्म करे स्वप्नों को, कभी राह नई दिखाई।

धुँआ ढक लेता दृष्टि को, पर सच नहीं छिपा पाता,
यह बताता — भीतर कोई अब भी सुलग रहा, गाता।
दिखता धुँआ जहाँ-जहाँ, समझो वहाँ जीवन है,
संघर्ष का चिन्ह वहीँ, जहाँ अभी स्पंदन है।

यह बताता — “हर रोशनी का मूल्य अंधकार से है,”
“हर दीपक की लौ का अस्तित्व धुँए के द्वार से है।”
यदि न हो धुँआ, तो अनुभवों की गहराई कहाँ मिले,
यदि न हो जलन, तो निर्मलता की परछाई कहाँ मिले।

धुँआ ही चेताता है — तपो, पर संतुलन साधो,
जलो, पर दूसरों को न जलाओ — यही सच्चा आधो।
जो धुँए से ऊपर उठे, वही देखेगा प्रकाश,
जिसने खुद को राख किया, वही पाएगा आकाश।

धुँआ — नकार नहीं, संक्रमण है,
अंधकार और उजास का स्पंदन है।
जहाँ पीड़ा है, वहीं जीवन है,
जहाँ जीवन है — वहीं ईश्वर का कंपन है।

डाॅ. सुमन मेहरोत्रा,
मुजफ्फरपुर बिहार

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