
धधकी है दिल्ली फिर, गूँज उठा गलियारा,
कंपित थे जन-मन, देख यह व्यवहार।
काँप उठा अंबर भी,धूँधूँ फैला अँधियारा,
धूल में घुलता रक्त,अनल सा भ्रष्टाचार।
चीखों संग बज रहा,टूटा गगन सहारा,
दर्द हुआ दिल लहू,खौफ बना है संसार।
कहाँ वह मानवता ,दीपक सा उजियारा,
बनकर राक्षसता,नर बना रोबदार।
जल रहीं थी वो कारें,काल ग्रास वे बेचारे,
सिसकी मासूमियत, टूटा हर परिवार।
न्याय शिला मंदिर में,मौन खड़ा दरबार,
अश्रु बना इतिहास, मिट गया था लाचार।
मानव की चेतना में,फैली खौफ दहशत,
स्वार्थ की लौ में जलता,हर निर्मल विचार ।
प्रलय थमेगा कब,कौन है पहरेदार,
फिर जगे इंसान में,सच्चा अब आत्मसार।
डाॅ सुमन मेहरोत्रा
मुजफ्फरपुर, बिहार




