
अपनों को भुला सकते नहीं
दर्दे जख्म किसे दिखा सकतें नहीं।
खुशियां कभी दिखती नहीं ,
यहां गम कभी बिकते नहीं।
हम जाने किस गलतफहमी में है कि,,,
यहां गमों की कोई दवा होती नहीं।
वक्त के साथ ख्वाहिशों का अंत नहीं होता,
बस इंसान इसी बात का बोझ है धोता ।
जिंदगी भर कमा के भी बुढ़ापे में वो रोता,
क्योंकि अपने ही अपनों को देते हैं गोता,
विश्वास की आंधियां अरमान पतझड़ से उड़ा गई,
एक पल में बना बनाया आशियाना उजाड़ गई।
दर्द क्या दवा क्या किसे बताएं किस सुनाएं,
यारो जेब भी खाली, पापी पेट शोर मचाए।
समझ नहीं आता बुढ़ापे में कहां जाए,
क्या हम यूं ही जिंदा लाश सा जीये जाए।
बस दर्द अपने सीने में दबाएं बैठे हैं,
किसे सुनाएं फुटपाथ पेचादर बिछाए बैठे।
विधाता ने जाने क्यों ये दिन दिखाया,
अपना ही अपनों को समझ ना पाया।
अब तुम ही बताओ जाये तो कहां जाये
जिंदगी में धोखे इतने खाए कि अब किसी पर विश्वास जाता ना पाये।
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शिवा सिहंल आबुरोड




