साहित्य

गीता-महिमा

वीणा गुप्त

1
गीता ज्ञान  सुरसरि शुभ,
मुक्ति -युक्ति  का द्वार।।
प्रभु मुख निस्सृत अमिय कण,
कर भव से उद्धार।।
2
अर्जुन मोह अपार अति,
धर्म पलायन चाह।।
दुविधा संशय अविद्या ,
कृष्ण दिखाई राह।।

3
प्रदर्शन  दैन्य भाव का,
निज कर्महि निर्वाह।।
माधव शरण इच्छा दृढ़,
आत्म- प्रकाशन चाह।।
4
प्रारब्ध के भोग प्रबल,
जीवन का सब सार।।
श्री हरि विमल लीला का,
अजर अमर विस्तार।।
5
बुद्धि अरु कर्म योग का,
मणि कांचन संयोग।।
वास होय गोलोक में ,
कटें सकल भव भोग।।
6
सुन कर गीता ज्ञान  को,
छूटे भव दुःख भार।।
हरि चरण में शरण मिले,
तज असार गह सार।।
7
गीता है भव कल्पतरु ,
काम धेनु सुख खान।।
श्रवण- पठन , चिंतन करो,
करहु अमृत रस पान।।
8
मनुज जन्म सार्थक हुआ ,
पाकर गीता ज्ञान ।।
संशय, मोह, भय मुक्ति का,
केवल यही निदान।।
9
पूत जासु मन, कर्म, वच,
ज्ञानी वह  कहलाय।।
सदाचार ,संयम धरे ,
नहि पर दोष लखाय।।
10
निर्णय -क्षमता ,सच,क्षमा
दमन ,तपस्या, शांति ।।
दान अहिंसा, तोष ही,
मेटे चिंता, क्लांति।।
11
तृष्णा ,माया मोह ही ,
मन विकार का मूल।।
धारो अंकुश चित्त पर,
तभी कटें सब शूल।।

12

गीता, गाय ,गायत्री ,
सुखकर ,कर भय नाश।।
सीता, सत्य ,सरस्वती,
देवत सिद्धि प्रकाश।।
13
माया नटी रिझा रही,
धार रूप विकराल।।
भ्रमित भया मन नाचता,
दे- दे सुर अरु ताल।।
14

गीता का होए जहाँ ,
चिंतन -मनन प्रसार।।
पावन शुभ तीर्थ सकल,
अवगाहत तिस द्वार।।

15
कर्ता धर्ता ईश ही  ,
वह जो चाहत होय।।
कर्म तुझे करना पड़े,
निष्क्रिय समय न खोय।।
16
मन  जिसके गीता रमी,
और ध्यान नहि कोय।।
पंडित,ज्ञाता,बुध वही,
वही स्थिर चित्त होय।।
17
गीता का घर- घर जबहि,
नित पारायण होय।।
त्रिविध ताप दुविधा मिटे,
भय पातक सब खोय।।

18
अग्नि छिपी जिमि काठ में,
बूंद उदधि ही होय।।
तिमि सब में निवसत वही,
मर्म न जाने  कोय।।
19
प्रभु भक्ति में निमग्न जो ,
निर्मल तिस को जान।।
वही रहित दुर्भाव से ,
दीपित उसके  प्राण।।

20
केवल मैं ही हूँ सही ,
उचित नहीं यह बात ।।
रूप अनेकहि सत्य के,
समझ खाय मत मात।।

21
कर्ता, भोक्ता तू सभी,
जान परख यह बात।।
सोच समझ कर आचरण,
करना कभी न घात।।
22
बंध जड़ मोह-पाश में,
मत कर जन्म असार।।
जाय गहो प्रभु की शरण,
जो चाहे  उद्धार।।
23
चित्त लाय गीता पढ़हु,
होय सम्पूर्ण ज्ञान।।
वेद -शास्त्र इसमें निहित,
इसमें सार पुराण।।
24
निष्क्रिय होकर बैठ मत,
कर्म जगत का  सार।।
अमृत सरिस जल है वही,
बहे सदा बन धार।।

25
चिंता  चिंतन में निहित ,
इस जगती का  सार।
चिंता  चिता समान है ,
चिंतन सुख आधार।।
26
चिंतन कर हरि नाम का,
तज सभी मोह पाश।।
सुमरिन कर नित नाम जो,
मिटे काल की त्रास।।
27
गीता ज्ञान  उत्तम अति,
सभी सुखों का मूल।।
मन का सब दूषण मिटे,
पावन गंगा कूल।।

28
योगी, सिद्ध ,श्रेष्ठ मनुज,
लीजै उस को जान।।
अहं तजे, संयम धरे,
आत्म रूप ले  जान। ।।
29
जग है सच,मिथ्या नहीं ,
करना यहीं निबाह।।
करो धैर्य  से सामना,
हर्ष-विषाद  प्रवाह ।।
30
जगत यही तव कार्य स्थल ,
नाहीं  प्रपंच मूल।।
निज विवेक से काम कर,
गह तत, असार भूल।।
31
अगम भेद सद् असद् का ,
जान सके नहि  कोय।।
बात आज अनुचित  लगे,
कल उचित वही होय।।
32
गीता पाठन सुख मूल है,
पढे़ प्रफुल्लित होय।।
जो प्रमादी समुझे नहि ,
जीवन बिरथा  खोय।।
33
भव यह सागर अगम अति,
करना चाहो पार।।
गीता-नौका पकड़ लो,
सहजहि हो उद्धार।।
34
ध्यान लगा लो ध्यान से ,
छूटे सब भय त्रास।।
विजय पाए विद्वेष पर
पहुँचे सहजहि पास।।
35
चित्त विकार त्याजहु सभी,
राख ईश पद-आस।।
दीनानाथ कृपालु हरि,
हरे सकल भय त्रास।।
36

शरण देहु अपनी सुखद,
भव जलधि अति अपार।।
सब तज तुझ तक आ गया,
करहु नाथ उद्धार।।

वीणा गुप्त
नई दिल्ली

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