गेहूँ और गुलाब

गेहूँ और गुलाब
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बहुत दिन बाद
आज खलिहान में
गुलाब और गेहूँ का,
साक्षात हो गया।
देख कर गुलाब को,
गेहूँ का वत्सल उमड़ आया।
उसने प्यार से उसे बुलाया।
स्नेह भीगे स्वर में बतियाया।
अरे बेटे गुलाब!
कैसा है तू?
खुशबू फैला रहा है न?
महका रहा है उपवन?
पास आती हैं न तेरे,
तितलियाँ और भंवरे।
काँटों से अपने बींधता तो
नहीं तू उनके पर?
बिछ तो नहीं गया ,
विलासियों की शय्या पर?
सज तो नहीं गया रईसों के
बेशकीमती गुलदानों में ।
बिक तो नहीं गया,
झूठे कद्रदानों में।
गेंहू ने अनजाने ही,
गुलाब की दुखती रग,
छू ली थी।
बिकना,बिछना
गुलाब की जरूरत थी,
मजबूरी थी।
खलिहान के सामने,
पोल खुलती देख अपनी
गुलाब बौखलाया,
फिर संभला,
इतराया, इठलाया।
बोला अकड़ कर,
अरे गेहूँ !
बोल जरा मुँह सँभाल।
किसने दिया हक तुझे
जो कर यूँ रहा,
मुझ पर अपने,
प्रश्नों की बौछार ?
शक्ल तो देख अपनी
सूखी ,सिकुड़ी ,मटमैली।
मेरे जैसी नज़ाकत,
रूप ,रंग ,गंध,
है क्या तेरे पास ?
मुझे क्या करना है।
है मुझे सब पता।
तू मुझे मत कुछ बता।
और क्या लेना- देना मुझे
उपवन और खलिहान से,
पाया मैंने सत्ता का आश्रय,
बड़े बड़ों से है मेरा नाता।
मैं देवों के शीश चढ़ता हूँ।
मंच,सभा,मंडप सजाता हँ।
जीने -मरने में सभी को,
मैं ही याद आता हूँ।
मैं प्रेम की परिभाषा हूँ।
कवि -कल्पना की आशा हूँ।
तू मेरे पासंग भी नहीं है।
कला और सुंदरता से
तेरा दूर-दूर तक ,
संबंध नहीं है
मैं अपना काम
बखूबी जानता हूँ।
तेरे सभी प्रश्नों को
बिल्कुल नकारता हूँ।
बेअदबी देख गुलाब की
गेंहू भी ताव खा गया।
गुलाब को उसकी हैसियत
उसकी औकात दिखा गया।
बोला गर्व से –
रूप, रंग ,गंध सब तेरे,
हैं कायम दम पर मेरे ।
गर मैं न होता,
तो तू होता ही नहीं।
अरे! मैं तो रोटी हूंँ,
मुझसे ही सारा जग,
यह ऊर्जावान है।
प्राणी की आंतों में ,
जब भूख बिलबिलाती है,
तो उसे तेरी नहीं,
मेरी ही याद आती है।
शिल्प ,कला ,कल्पना
भरे पेट को सुहाती है।
भूखे को चाँद में भी तब,
रोटी ही नजर आती है।
धर्म ,मूल्य, उत्थान की
बड़ी- बड़ी बातें सब
तब हवा हो जाती हैं।
बिन मेरे सब निस्सार है।
वाह वाही में तेरी छिपा
मेरा ही सार है ।
तू बेपर की कल्पना है,
मैं हूँ यथार्थ-का भास ।।
मैं जमीन हूँ,तू है आकाश।
जड़ से जुड़ाव ही जीवन,
उत्थान और विकास है।
बिना इसके सारी प्रगति
व्यंग्य औ उपहास है।
गुलाब को जब गेंहू ने
यूँ आईना दिखाया।
तो खोखला अहम उसका
पूरी तरह पिचक गया।
गेहूँ की बातों में उसे
सच दिख गया।
बोला ,दादा!
बात आपकी
बिल्कुल सही है।
अज्ञान को मेरे आपने
सही दिशा दी है।
उपवन बिना जीवन,
व्यर्थ और विरस है।
ज़मीन से जुड़ना ही
हरियाली है, रस है।
उपवन से जुड़ाव ही
मेरा अस्तित्व है।
इसके हित में ही,
जीना सार्थक है।
सुन बातें उसकी
गेंहूँ मुस्काया।
यूँ भटकाव ने था,
रास्ता सही पाया।
वीणा गुप्त
नई दिल्ली




