आलेख

गर्भसंस्कार: जीवन का प्रथम पावन संस्कार

योगेश गहतोड़ी "यश"

गर्भसंस्कार जीवन के १६ संस्कारों में से एक अत्यंत महत्वपूर्ण और पावन संस्कार है। यह न केवल शिशु के शारीरिक और मानसिक विकास को सुनिश्चित करता है, बल्कि उसके आध्यात्मिक विकास, गुण और जीवन दृष्टि को भी सुदृढ़ करता है। गर्भसंस्कारों में चार प्रमुख संस्कार आते हैं – *गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन और प्रसवन,* जिनका क्रमिक पालन बच्चे के विकास और माता के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत आवश्यक माना गया है। वैदिक, पुराणिक और गृहसूत्रों में इन संस्कारों का विस्तृत उल्लेख है और इनकी पवित्रता, विधि और महत्व का विशेष ध्यान रखा गया है।

गर्भसंस्कार केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं हैं; यह माता-पिता, परिवार और समाज की जिम्मेदारी का प्रतीक हैं। प्रत्येक संस्कार का उद्देश्य शिशु में सकारात्मक ऊर्जा, सात्विक चेतना और गुणवान जीवन का बीज अंकुरित करना है। आधुनिक युग में भी गर्भसंस्कार उतने ही प्रासंगिक हैं, क्योंकि मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और शारीरिक दृष्टि से गर्भधारण और प्रारंभिक जीवन के यह संस्कार शिशु और माता दोनों के लिए लाभकारी हैं।

*गर्भाधान संस्कार*

गर्भाधान संस्कार जीवन का प्रथम और सबसे पवित्र संस्कार माना जाता है। यह केवल शारीरिक क्रिया नहीं है, बल्कि चेतना, जीवन मूल्यों और सृष्टि की दिव्य ऊर्जा का समन्वय है। इस संस्कार का आधार माता-पिता की मानसिक तैयारी, प्रेम और संकल्प होते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य भ्रूण में स्वास्थ्य, बुद्धि और आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार करना है।

वेदों में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है:
*”सहस्रशीर्षा पुरुषः सृष्टिं विसृष्ट्यादि सर्वम्”*
इसका भावार्थ यह है कि संतानोत्पत्ति केवल भौतिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि संपूर्ण सृष्टि की चेतनात्मक शक्ति और दिव्यता से जुड़ी हुई प्रक्रिया है। माता-पिता के प्रयास, श्रद्धा और सात्विक जीवनशैली के माध्यम से जीवन का बीज उसी परम पुरुष की शक्ति से अंकुरित होता है।

पुराणों और गृहसूत्रों में माता-पिता के संयमित जीवन, सात्विक आहार, यज्ञ और मंत्रपाठ का विशेष महत्व बताया गया है। संतानोत्पत्ति के समय पति-पत्नी की मानसिक स्थिति, भावनाएँ, आहार, ध्यान और सकारात्मक सोच भ्रूण के स्वास्थ्य और गुणों पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालती हैं।

इस संस्कार में मंत्रों का उच्चारण और यज्ञ अनिवार्य हैं। मंत्रों के माध्यम से माता और पिता की ऊर्जा भ्रूण तक पहुँचती है और जीवन बीज का मार्ग सही दिशा में निर्धारित होता है। उदाहरण स्वरूप, गर्भाधान के समय उच्चारित मंत्रों में प्रजनन, स्वास्थ्य और संतान के कल्याण के लिए विशेष आशीर्वचन शामिल होते हैं। शास्त्र इस संस्कार को केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामाजिक दायित्व के रूप में भी देखते हैं, क्योंकि स्वस्थ, गुणवान और संस्कारी संतान ही समाज की प्रगति और स्थिरता का आधार होती है।

*पुंसवन संस्कार*

पुंसवन संस्कार गर्भावस्था के तीसरे या चौथे माह में किया जाता है। इसका उद्देश्य भ्रूण की सुरक्षा, चेतना और गुणों के विकास को सुनिश्चित करना है। यह संस्कार केवल शारीरिक विकास या लिंग निर्धारण तक सीमित नहीं है, बल्कि शिशु की प्रारंभिक चेतना, बुद्धि और नैतिक गुणों के निर्माण में सहायक माना जाता है।

वैदिक परंपरा में इसके लिए विशेष मंत्रों का उच्चारण, नाक और सिर पर पवित्र तेल का लेपन और यज्ञ आदि विधियाँ अपनाई जाती हैं। उदाहरण स्वरूप, *”ऊँ भ्रूणाय नमः”* मंत्र उच्चारित किया जाता है। इस समय माता का मानसिक संतुलन, सात्विक आहार और सकारात्मक वातावरण संस्कार की सफलता के लिए अनिवार्य हैं। माता-पिता का संयमित जीवन, शुद्ध विचार और सात्विक भोजन भ्रूण के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास में निर्णायक भूमिका निभाते हैं।

पुराणिक दृष्टि से यह संस्कार केवल माता-पिता का नहीं, बल्कि समाज की जिम्मेदारी भी माना गया है। यह सुनिश्चित करता है कि नवजात जीवन स्वास्थ्यपूर्ण, बुद्धिमान और गुणवान हो। इसे प्रत्येक गर्भधारण में एक बार करने की परंपरा उत्तम मानी गई है।

पुंसवन संस्कार में यज्ञ और आशीर्वचन से माता और भ्रूण दोनों को सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है। यह संस्कार शिशु की प्रारंभिक चेतना और बुद्धि के विकास का पहला आध्यात्मिक कदम माना जाता है। आधुनिक दृष्टि से देखा जाए तो माता की मानसिक स्थिति, आहार और वातावरण भ्रूण के न्यूरल विकास और मानसिक संतुलन के लिए महत्वपूर्ण है, जिससे बच्चा जन्म के बाद स्वस्थ और समझदार होता है।

*सीमंतोन्नयन संस्कार*

सीमंतोन्नयन संस्कार गर्भावस्था के मध्य चरण में किया जाता है, जिसका मुख्य उद्देश्य गर्भिणी माता की मानसिक और शारीरिक सुरक्षा सुनिश्चित करना है। इस संस्कार के दौरान माता के बाल संवारने, विशेष मंत्रों का उच्चारण और आशीर्वचन दिया जाता है। माता की मानसिक शांति और सकारात्मक ऊर्जा भ्रूण के स्वास्थ्य और संतुलित विकास के लिए अत्यंत आवश्यक मानी जाती है।

*”सप्त जन्म संतानाय माता धर्मवती भवेत्।”*
अर्थात् इस संस्कार से माता और संतान दोनों का जीवन धर्मयुक्त, स्वस्थ और मंगलमय बनता है।

पुराणों में इस संस्कार को गर्भावस्था के चौथे से सातवें माह के बीच करने का सुझाव दिया गया है। इस दौरान माता-पिता का सहयोग, यज्ञ, आशीर्वचन और पवित्र वातावरण अत्यंत महत्वपूर्ण है। शास्त्र यह भी बताते हैं कि सात्विक आहार, मानसिक स्थिरता और सुरक्षित परिवेश का प्रत्यक्ष प्रभाव भ्रूण के शारीरिक और मानसिक विकास पर पड़ता है।

सीमंतोन्नयन संस्कार में भी विशेष मंत्रों का प्रयोग होता है, जैसे *”ऊँ श्रीं”,* जो माता और भ्रूण दोनों के लिए सकारात्मक ऊर्जा और सुरक्षा का संचार करता है। यह संस्कार केवल माता के स्वास्थ्य की सुरक्षा ही नहीं करता, बल्कि प्रसव की सफलता और शिशु की सुरक्षित विकास यात्रा के लिए भी महत्वपूर्ण है।

*प्रसवन संस्कार*

प्रसवन संस्कार शिशु के जन्म के समय संपन्न होता है और यह अंतिम तथा अत्यंत महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य सुरक्षित जन्म सुनिश्चित करना और माता-शिशु की रक्षा करना है। यह संस्कार शिशु के जीवन में स्वास्थ्य, दीर्घायु और संतुलित विकास की नींव रखता है।

*”संतानं सुप्रियं भवेत् आयुष्यमानं च शुभम्।”*
अर्थात्, इस संस्कार से शिशु प्रिय, दीर्घायु और मंगलमय जीवन पाए।

वेदों और पुराणों में इसके लिए यज्ञ, मंत्रोच्चारण, आशीर्वचन और शुभ वातावरण का विशेष महत्व बताया गया है। माता-पिता और परिवार के सहयोग से नवजात शिशु का स्वागत पवित्र और सुरक्षित वातावरण में किया जाता है। मंत्र, यज्ञ और आशीर्वचन शिशु के लिए सकारात्मक ऊर्जा का स्रोत होते हैं, जिनके माध्यम से शिशु को धर्म, बुद्धि, स्वास्थ्य और जीवन की मंगलकामनाएँ दी जाती हैं।

इसके अतिरिक्त जटाकर्म, नामकरण और अन्य प्रारंभिक संस्कार नवजात शिशु के जीवन की दिशा निर्धारित करते हैं। माता-पिता और परिवार के आशीर्वचन शिशु की सकारात्मक चेतना और गुणवान जीवन निर्माण में सहायक होते हैं। आधुनिक दृष्टि से देखा जाए तो प्रसव संस्कार तनाव मुक्त वातावरण, सात्विक भोजन और मानसिक संतुलन के माध्यम से शिशु के स्वास्थ्य और दीर्घायु के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

*चारों गर्भसंस्कार का आपसी संबंध और महत्व*

चारों गर्भसंस्कार — गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन और प्रसवन — आपस में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से गहरे रूप से जुड़े हुए हैं।

*1. गर्भाधान संस्कार* जीवन की पवित्र शुरुआत करता है, जिसमें माता-पिता के मानसिक संतुलन, सात्विक जीवनशैली और सकारात्मक सोच से भ्रूण में चेतना और स्वास्थ्य का आधार तैयार होता है।
*2. पुंसवन संस्कार* भ्रूण के गुण, बुद्धि और चेतना विकास को पुष्ट करता है।
*3. सीमंतोन्नयन संस्कार* माता की मानसिक शांति और पोषण के माध्यम से भ्रूण के सुरक्षित विकास को सुनिश्चित करता है।
*4. प्रसवन संस्कार* शिशु के जन्म के समय सुरक्षित और मंगलमय वातावरण प्रदान करता है, जो उसके दीर्घकालीन स्वास्थ्य, गुण और चेतना के लिए निर्णायक होता है।

इस प्रकार प्रत्येक संस्कार अपने पूर्ववर्ती संस्कार पर आधारित होता है। माता-पिता का संयमित जीवन, सकारात्मक मानसिकता तथा परिवार का सहयोग इन संस्कारों के प्रभाव को स्थायी और समग्र बनाते हैं। परिणामस्वरूप, शिशु का जीवन शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से पूर्ण और मंगलमय बनता है।

*आज के युग में गर्भसंस्कार*

आज के युग में गर्भसंस्कार केवल धार्मिक परंपरा नहीं रह गए हैं। इन्हें मानसिक, शारीरिक और सामाजिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। आधुनिक विज्ञान और आयुर्वेदिक दृष्टि से देखा जाए तो गर्भिणी माता का मानसिक संतुलन, सकारात्मक सोच और सात्विक जीवनशैली भ्रूण के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास में निर्णायक भूमिका निभाते हैं।

*. *गर्भाधान संस्कार* माता-पिता के मनोबल, प्रेम और संकल्प के माध्यम से जीवन बीज की सही दिशा सुनिश्चित करता है।
*. *पुंसवन और सीमंतोन्नयन संस्कार* भ्रूण के स्वास्थ्य, बुद्धि और मानसिक संतुलन के लिए सहायक होते हैं।
*. *प्रसवन संस्कार* शिशु के सुरक्षित जन्म और दीर्घायु के लिए आवश्यक वातावरण प्रदान करता है।

आधुनिक दृष्टि से देखा जाए तो माता-पिता का तनाव-मुक्त वातावरण, पोषणयुक्त आहार, संगीत और सकारात्मक मानसिकता भ्रूण के न्यूरल और मानसिक विकास को प्रोत्साहित करती है। इस प्रकार गर्भसंस्कार आज भी उतने ही प्रासंगिक और प्रभावशाली हैं जितने प्राचीन काल में माने जाते थे।

*उपसंहार*

गर्भसंस्कार केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं हैं, बल्कि जीवन निर्माण की पवित्र प्रक्रिया हैं। यह माता-पिता, परिवार और समाज के दायित्व और जिम्मेदारी को उजागर करता है। ये संस्कार शिशु के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास के लिए आधार तैयार करते हैं।

जैसा कि श्लोक में कहा गया है –
*”यथा वृक्षः सम्यक् मूलतः सञ्चरति निर्भयः, तथा संतानः*
*यदि गर्भ-मूलतः संस्कारित हो, तर्हि समाजः दृढः भवति।”*
अर्थात् जिस प्रकार एक वृक्ष अपने मजबूत मूल से दृढ़ता से स्थिर और निर्भय रहता है, उसी प्रकार यदि संतान का प्रारंभिक जीवन गर्भ में ही संस्कारित और शुभ हो, तो वह व्यक्ति शारीरिक, मानसिक और आत्मिक दृष्टि से मजबूत बनता है। ऐसे संस्कारित बच्चों से ही समाज का आधार दृढ़ और स्थिर बनता है।

गर्भसंस्कारों के माध्यम से हम केवल संतानोत्पत्ति ही नहीं करते, बल्कि स्वस्थ, संस्कारी और धर्म-संपन्न पीढ़ी का निर्माण सुनिश्चित करते हैं। ये संस्कार माता-पिता को मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक रूप से सजग बनाते हैं और शिशु के प्रारंभिक जीवन में स्थायी सकारात्मक प्रभाव डालते हैं।

🙏 योगेश गहतोड़ी “यश”

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