
बात है द्वापर की ,
गुरु दक्षिणा में ,
एकलव्य का अंगूठा
कटवाने के बाद,
गुरु द्रोण बहुत व्यथित थे।
अपना यह क्रूर कर्म,
उन्हें उनकी ही दृष्टि में
गिरा गया था।
सच तो यही था,
कि भीलपुत्र एकलव्य,
उनकी शतश: प्रशंसा का
अधिकारी था।
सभी चमत्कृत थे
उसकी धनुर्विद्या से।
लेकिन अर्जुन के प्प्रति
उनका मोह,
पक्षपात उनका
बन गया पतन द्रोण का।
उस भयावह
गुरु दक्षिणा की मांँग,
और उसका सहर्ष,
तत्काल पालन
देख सहम उठे थे
सभी कुरू राजकुमार।
अवाक् दृष्टि उनकी
बरसा रही थी गुरु पर शतशःधिक्कार।
इस मौन भर्त्सना ने,
दहला दिया था
द्रोण का अंतर,
पर स्वार्थ के सामने,
विवेक था नत सिर।
कटवा अंगूठा
उस अप्रतिम धनुर्धर का,
गुरु दक्षिणा के नाम पर,
अपराध बोध ले अपार,
आत्म ग्लानि से भरे,
द्रोण जीते जी ही
मरते रहे सौ बार।
आँखों में ही बिताई,
व्यथित हो सारी रात।
अगले दिन प्रात: ही
प्रस्थान किया।
एकलव्य की
कुटिया की ओर।
एकलव्य
श्रद्धासुमन अर्पित कर ,
उनकी प्रस्तर-प्रतिमा को,
प्रणिपात कर रहा था।
धनुष- निषंग उपेक्षित सा,
एक ओर पड़ा था।
कल का क्षत हथेली पर
उसकी एकदम हरा था।
रक्त से भरा था।
गुरु की गरिमा का,
कलंक दर्शा रहा था।
गुरु- कृपा का प्रसाद
मान उसे प्रवंचित शिष्य,
गुरु प्रतिमा पर,
अर्घ्य चढ़ा रहा था।
देख यह भक्ति-समर्पण
भर आया द्रोण का मन,
अश्रु बन बहे वचन।
भावविह्वल था कंठ
कुकर्म दे रहा था दंश।
फूटा आकुल स्वर
“बताओ वत्स एकलव्य,
मैं तुम्हारा अपराधी,
गुरु कुल कलंक द्रोण,
पूछ रहा हूंँ तुमसे?
तुम शिष्य शिरोमणि,
शिष्य परंपरा के अनुपम रत्न
तुम्हारी निष्ठा और लगन,
ले जाती है तुम्हें ,
उन ऊंँचाइयों पर,
जहांँ से दृष्टिपात करने पर,
मुझ जैसे अधम-पापी ,
गुरु की साख हो जाती है,
क्षुद्र से क्षुद्रतर।
लेकिन वत्स!
मन में है एक प्रश्न मेरे।
देना स्पष्ट उत्तर।
आखिर क्यों
नहीं किया किया तुमने
अपने साथ न्याय?
क्यों किया अपनी,
समग्र साधना का उत्सर्ग?
मुझ जैसे के समक्ष?
जिसने तुझ विद्यार्थी को,
ठुकराया,दुरदुराया,किया,
शिक्षा-अधिकार से वंचित।
फिर क्यों किया वत्स,
मेरे गर्हित स्वार्थ को,
अहम को पोषित?
क्यों किया त्याग
उस विद्या का,
जो थी केवल तुम्हारी,
तुमने अपनी साधना से,
किया था जिसे अर्जित।
क्या अधिकार था मेरा,
तुमसे दक्षिणा पाने का?
जब तुम्हें दिया ही नहीं कुछ,
तो क्या हक था लेने का?
क्यों नहीं दिया तुमने मुझे,
वैसा ही दो टूक उत्तर?
जैसा मुझसे तब पाया था?
जब मैंने तुम्हारे ,
गुरुकुल प्रवेश पर,
अकारण ही,
प्रतिबंध लगाया था।
मैं अब तक स्वयं को
सुसंस्कृत मानता रहा।
पर वत्स!
सुसंस्कृत तो तुमने
बनकर दिखाया था।
काश! दिखाया होता,
आईना मुझे सच का।
ऐसा तो नहीं था क्या?
कि तुम भी मेरे
तथाकथित,
महत् रुप को
बौना देखने से
कतरा रहे थे।
इसीलिए व्यर्थ का
गुरु-ऋण चुका रहे थे?
क्या ऐसा तो नहीं,
मेरे जिस निष्ठुर व्यवहार ने
तुम्हारी भग्न-आस को,
दृढ़ संकल्प का
मार्ग दिखाया ,
तुम्हें लक्ष्य तक पहुंँचाया,
उस दंभ भरे व्यक्ति को,
अचानक समक्ष पा
तुम धन्य हो गए थे?
मेरे प्रति तुम्हारे
सारे उपालंभ,सारे आक्रोश
इसी भाव-गंगा में धुल
निर्मल हो गए थे।
तुम महान थे,धन्य थे।
तभी तो बिना किए
एक भी प्रश्र,
सहर्ष सर्वस्व अर्पण को,
प्रतिबद्ध हो गए थे।
तुम सा समर्पण,
कृलज्ञता ज्ञापन,
विरल है वत्स!
इतना होने पर भी
तुम नेपथ्य में रहे।
उजागर होती रही
महानता मेरी।
करता रहा मैं अभिनय,
पहनता रहा विजय हार।
लेकिन अब और नहीं,
सहा जाता यह
मिथ्याचार।
प्रतिपल लघु होता
यह गुरुता का भार।
नहीं सही जाती अब,
यह आत्म धिक्कार।
क्षमा प्रार्थी हूंँ मैं वत्स!
शायद क्षमा तेरी कर पाए,
मेरी ग्लानि का परिहार।
न ढो पाए गुरु- परंपरा,
मेरे जैसे गुरुओं का भार।
पश्चाताप मेरा कर पाए
शायद मेरा उद्धार।”
वीणा गुप्त
नई दिल्ली
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