आलेख

हरियाणवी भाषा की उपेक्षा: अस्मिता का संकट

आचार्य शीलक राम

हरियाणा भारत का वह राज्य है, जहाँ की मिट्टी की खुशबू, लोगों की सादगी, और लोकसंस्कृति अपने आप में अद्वितीय है। परंतु विडंबना यह है कि जिस हरियाणवी भाषा में इस भूमि की आत्मा बसती है, वही भाषा आज अपने ही घर में उपेक्षित और अपमानित हो रही है।
हरियाणा का लगभग अस्सी प्रतिशत जनमानस हरियाणवी बोलता है। गाँव की चौपाल से लेकर घर के आँगन तक हरियाणवी का स्वाभाविक प्रवाह दिखाई देता है। लेकिन जैसे ही कोई बच्चा विद्यालय में कदम रखता है, उसे यह सिखाया जाने लगता है कि हरियाणवी बोलना “गंवारपन” या “पिछड़ापन” है। निजी विद्यालयों में तो स्थिति यह है कि हरियाणवी बोलने पर जुर्माना तक लगाया जाता है। यही नहीं, उच्च शिक्षण संस्थानों — महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों — में भी हरियाणवी बोलना हास्यास्पद समझा जाता है।
यह स्थिति केवल भाषाई भेदभाव नहीं, बल्कि सांस्कृतिक हीनभावना का परिणाम है। भारत में अन्य प्रादेशिक भाषाओं — पंजाबी, गुजराती, असमी, तमिल, तेलुगु, मलयालम आदि — को सम्मान प्राप्त है। इन भाषाओं में शिक्षण, साहित्य, पत्रकारिता और कला के क्षेत्र में भरपूर काम हो रहा है। परंतु हरियाणवी के साथ ऐसा व्यवहार क्यों नहीं? क्या इसलिए कि इसे “बोली” कहा जाता है, या इसलिए कि यह ग्रामीण जीवन से जुड़ी हुई है?
यह प्रश्न हर हरियाणवी के आत्मसम्मान से जुड़ा हुआ है। जब हम अपनी ही मातृभाषा बोलने में संकोच करने लगते हैं, तो यह केवल भाषा का नहीं, बल्कि अस्मिता का संकट है।
आज हरियाणा दिवस पर भव्य कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं — झांकियाँ, सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ, भाषण — परंतु कितनी बार किसी मंच से यह आवाज़ उठाई जाती है कि हमारी शिक्षा प्रणाली में हरियाणवी को उसका सम्मानजनक स्थान मिले? विश्वविद्यालयों में हरियाणवी विभाग तो हैं, पर वहाँ भी प्रश्नोत्तर हिंदी में होते हैं, हरियाणवी में नहीं। यह स्थिति केवल औपचारिकता का प्रदर्शन है, वास्तविक सम्मान का नहीं।
अब समय आ गया है कि हम हरियाणवी भाषा के पुनर्जागरण का संकल्प लें। यह भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति की पहचान, हमारे इतिहास की गाथा, और हमारी सामूहिक चेतना की अभिव्यक्ति है।
यदि तमिल अपने गर्व का प्रतीक हो सकती है, यदि पंजाबी अपनी ऊर्जा का, यदि बंगाली अपनी साहित्यिक गरिमा का, तो हरियाणवी क्यों नहीं अपने स्वाभिमान का प्रतीक बन सकती? इसके लिए आवश्यकता है —
1. विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में हरियाणवी को वैकल्पिक विषय के रूप में प्रोत्साहन देने की।
2. सरकारी और गैर-सरकारी कार्यक्रमों में हरियाणवी को प्रयोग में लाने की।
3. साहित्य, रंगमंच, फिल्म और मीडिया में हरियाणवी की सशक्त उपस्थिति सुनिश्चित करने की।
हरियाणा की पहचान उसके किसानों, सैनिकों और खिलाड़ियों से जितनी है, उतनी ही उसकी भाषा से भी है। अगर भाषा ही कमजोर पड़ जाएगी, तो पहचान भी धीरे-धीरे मिट जाएगी।
हरियाणवी बोलने में शर्म नहीं, गर्व होना चाहिए — क्योंकि यह केवल बोली नहीं, बल्कि इस धरती की आत्मा है।
आचार्य शीलक राम
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
(हरियाणा)

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