
ये यथा मां प्रपद्यंते तांस्तथैव भजम्यहम्…
भगवान को जो जिस रूप में भजता है भगवान उसको उसी रूप में अपनी कृपा प्रदान करते हैं ।हम अगर भक्ति की दृष्टि से देखें तो सब रूपों में एक परमात्मा ही हमारे सामने आते हैं। हमें भूख लगती है तो वह अन्न के रूप में आते हैं ,प्यास लगती है तो जल के रूप में आते हैं हम रोगी होते हैं तो वह औषधि रूप के आते हैं ,हमें गर्मी लगती है तो वह छाया रूप में आते हैं ,हमें सर्दी लगती है तो वसन रूप में आते हैं ।तात्पर्य है कि सब रूपों में परमात्मा ही हमें प्राप्त होते हैं परंतु हम उन रूपों में आए परमात्मा का भोग करने लग जाते हैं इसीलिए हमेशा दुखी रहते हैं। हम अपने को शरीर मानकर अपने लिए वस्तुओं की आवश्यकता मांगते हैं और उनकी इच्छा करते हैं तो परमात्मा भी वैसे ही बनकर हमारे सामने आते हैं ।हम असत् में स्थित भगवान को देखते हैं तो भगवान असत् रूप में दिखते हैं। हम जैसा परमात्मा को देखना चाहते हैं वे वैसे ही हमें दिखते हैं।
जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी
एक पत्थर को हमारा अटूट विश्वास,हमारी आस्था ही ईश्वर बनाती है ।जैसे बालक खिलौना चाहता है तो मां रुपए खर्च करके भी उसको खिलौना लाकर देती है ऐसे ही हम जो चाहते हैं परम दयालु परमात्मा उसी रूप में हमारे सामने आते हैं ।
सोने से बने कई तरह के गहने मान लीजिए हमारे सामने रखे हैं लेकिन उन गहनों के नाम या आकार सच्चाई नहीं है। सच्चाई है.. उनमें निहित सोना। इसी तरह दुनियाॅं में बहुत सारी चीज़ें हमें दिखती हैं उनके अंदर मौजूद जो तत्व है जो विनाश से परे है, जो काल की मार से परे है ,वही तत्व सत्य है, वही तत्व परमात्मतत्व है।
@मधु माहेश्वरी गुवाहाटी असम



