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मजदूरों के जीवन में जहर घोलने मजदूर विरोधी नये कानून...!

21 नवंबर को सरकार ने मजदूर विरोधी चार श्रम संहिताओं को लागू करके मजदूर वर्ग पर सबसे बड़ा हमला किया है। इससे क्या नुकसान होगा? पढ़िये त्वरित टिप्पणी….

राकेश डीपी पाठक

नयी श्रम संहिताओं (लेबर कोड्स) को पूरे देश में लागू कर दिया जाना मजदूरों के लिए एक गहरे अविश्वास, आक्रोश और असुरक्षा का माहौल पैदा करता है। वर्षों की कठिन लड़ाई, हड़तालों, जेलों और आंदोलनों ने जिन अधिकारों को दिलाया था, वे आज एक झटके में “संहिताओं” के नाम पर कमज़ोर कर दिए गए। यह बदलाव आधुनिकता या सरलता के नाम पर पेश तो किया गया, लेकिन उसका असल मकसद मजदूर की पीठ पर पूंजीपतियों का चाबुक बरसाना है।

इन श्रम संहिताओं ने मालिक और पूँजी के पक्ष में संतुलन को और झुका दिया है। छंटनी और लॉकआउट को आसान बनाने वाली संहिताएँ मजदूरों को नौकरी की स्थिरता से वंचित करती हैं। आज जब काम पहले से अधिक असुरक्षित, अनुबंध आधारित और असंगठित हो चुका है, तब “सरलीकरण” का अर्थ मालिक को यह अधिकार दे देना है कि वे जब चाहें मजदूरों को निकाल बाहर कर सकते हैं क्योंकि पहले 44 कानून मजदूरों को अलग-अलग सुरक्षा प्रदान करते थे जिनकी जगह अब केवल चार श्रम संहिताओं को लाया गया है। 44 से 4 तक आना “सरलीकरण” और सुधार के नाम पर मजदूरों को नयी गुलामी में धकेलना है।

हड़ताल के अधिकार को ऐसे शर्तों और नोटिसों में बांध दिया गया है कि वह लगभग निष्प्रभावी हो गया है। यह मजदूरों के हथियारों में सबसे महत्वपूर्ण था, जब सारी बातचीत बंद हो जाए, तब संघर्ष का यह अहिंसक दबाव ही मजदूर की अंतिम आवाज़ बनता है। अब इस आवाज़ को कानूनी प्रक्रिया में उलझाकर कमजोर कर दिया गया है। यह हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला है, क्योंकि हड़ताल केवल आर्थिक मांग नहीं, बल्कि असहमति का सामाजिक और राजनीतिक स्वर भी होती है।

इसी तरह यूनियन बनाने के अधिकार को भी शर्तों और पंजीकरण प्रक्रियाओं की भूलभुलैया में डाल दिया गया है। एक तरफ सरकार “ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस” की बात करती है, और दूसरी तरफ “ईज़ ऑफ फॉर्मिंग यूनियन” को और कठिन बना देती है। इससे साफ है कि मजदूर को एक संसाधन, एक निर्जीव वस्तु के रूप में देखा जा रहा है, जिसकी खून और पसीने की आखिरी बूँद से मुनाफ़ा निचोड़ लिया जाए और उसे मालिकों की तिजोरी भरने के काम में ले आया जाए। यह अन्याय, अमानुषिकता और शोषण की पराकाष्ठा है।

काम के घंटे बढ़ाए जाने, फिक्स्ड-टर्म रोजगार का प्रसार, जब चाहे रखो-जब चाहे निकाल फेंको (हायर एंड फायर) और निगरानी आधारित प्रबंधन की छूट ने मजदूरों की बर्बादी को तय कर दिया है। वे हाड़तोड़ मेहनत से थकान, तनाव और असुरक्षा का अनुभव तो अखरेंगे ही, साथ ही कम मजदूरी से उनके परिवार कुपोषण और बीमारी की चपेट में और अधिक आयेंगे जिससे उनका सामाजिक स्तर और गिर जाएगा तथा न्याय पाना उनके लिए और मुश्किल हो जाएगा। सामाजिक सुरक्षा फंड और लाभों को भी ऐसी भाषा में रखा गया है, जिसमें लाभ से ज्यादा अस्पष्टता है। यह लंबे और जुझारू संघर्ष से हासिल अधिकारों को अल्पकालिक लचीलेपन में बदल देने की रणनीति है जो अंततः मजदूरों को ही कमजोर करेगी।

इन्हें मजदूरों, यूनियनों या उनके प्रतिनिधियों के साथ असली बातचीत के बिना संसद में पास किया गया और पिछले पांच साल के उनके विरोध को दरकिनार करते हुए आज इन्हें लागू कर दिया गया। यह बेहयाई और निरंकुशता की हद है। यहाँ तो सरकार ने महामारी की आड़ में संसद के संक्षिप्त सत्र का उपयोग करके वह काम कर दिया जो सामान्य परिस्थितियों में व्यापक विरोध, हड़तालों और लंबे विमर्श का विषय बन सकता था।

मजदूर विरोधी नये कानून आज भले ही संहिताओं के मुखौटे में पेश किये जा रहे हों, लेकिन वे मजदूरों के जीवन में जहर घोलने वाले हैं– ओवरटाइम के अतिरिक्त घंटे और उनका सही भुगतान नहीं, प्रबंधक-प्रशासन की मनमानी, नौकरी का डर, और यूनियन बनाने की मुश्किल। ये संहिताएँ सुधार की दिशा में नहीं, बल्कि अधिकारों को सीमित करने की दिशा में एक निर्णायक मोड़ हैं।

1-राकेश डीपी पाठक
महामंत्री फेडरेशन
2-मदन वर्मा
प्रदेश प्रवक्ता फेडरेशन

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