
कविताओं का संसार निराला,
कवि-उर का बन जाता प्याला।
सर्जक हृदय से उबल-उबल कर, पृष्ठों पर छप जाता है,
पाठक उर में उतर-उतर कर,
मधुमय रस बन जाता है।
भाषा,भाव,छंद,रस अंलकार अंतस्तल का उद्गार उड़ेल,
पाठक को रसपान करा सकें जो वो लालित्य जनक भाषा का चोला पहन आकृष्ट करने और उद्वेलित करने की हो कूट-कूट कर भरी जिनमें वही तो काव्य विधा में जाती हैं उतर।
कविता तो मन का दर्पण है,
विषय की गूढ़ता हल्के में जो समझाती हैं।
अंतर्तम में प्रवेश कर भावप्रवण बन जाती जो,
लेखनी से निकल शब्द काव्य स्वरूप धर लेती है।
असंख्य अनूठे संवेगों को अपनी थाती में रखे जो,
नर-नारी आबाल-वृद्ध सबके भावों का परिपाक बने जो,
मंत्रमुग्ध, करुणा, ओजस् औ विकल व्यथा का बाना पहने,
वक्त-वक्त पर सारे जग में स्वप्रभव बन जाएं जो,
वही तो बन सँवर कर बन जाती है कविता,
हाँ भई हाँ! वही कविता कहलाती है।।
– सुषमा श्रीवास्तव, रुद्रपुर, ऊधम सिंह नगर,उत्तराखंड




