क्या होती है बैरंग चिट्ठी,ज.उपेंद्र द्विवेदी ने किया है जिसका जिक्र, ग़ालिब भी भेजा करते थे बिना टिकट वाले खत
प्रो. सुधाकर तिवारी
देश के सेनाध्यक्ष जनरल उपेंद्र द्विवेदी ने पाकिस्तान को सबक सिखाने के बारे में बैरंग चिट्ठी का जिक्र किया. मोबाइल के दौर में पैदा हुई नई पीढ़ी के लिए बैरंग चिट्ठी शायद ही पता हो. लेकिन एक वक्त में ये लोकप्रिय तरीका था. लोग ये भी मानते थे कि बगैर टिकट वाली बैरंग चिट्ठी जल्दी पहुंच जाएगी । सरकार को इसमें पैसा पाना होता था और इसका महसूल लिफाफे के महसूल से दो गुना होता था । सरकार को जब पैसा वसूलना या पाना हो तो स्वाभाविक है वह ईमानदारी और शीघ्रता क्षिप्रता बरतती है काम करने में ।
भारतीय सेना प्रमुख जनरल उपेंद्र द्विवेदी ने पाकिस्तान को चेतावनी देते हुए बैरंग चिट्ठी का जिक्र किया. ह्वाट्सएप, ई-मेल, गूगल मीट या टीम्स के दौर की नई पीढ़ी के लिए हो सकता है कि अनसुना शब्द हो. या फिर किसी और संदर्भ में ही इसे सुना हो. अगर कोई किसी काम के लिए कहीं गया और काम नहीं हुआ तो भी पुराने लोग कहते रहे हैं बैरंग लौट आए. हालांकि साल 2000 से पहले पैदा हुए ज्यादातर लोगों को पता होगा कि भारतीय डाक विभाग बैरंग चिट्ठियां भी पहु्ंचाता रहा है.
क्या होती है बैरंग चिट्ठी, जनरल उपेंद्र द्विवेदी ने किया है जिसका जिक्र
लोग मानते थे कि बैरंग चिट्ठी जरुर अपनी मंजिल पर पहुंचेगी.
बैरंग चिट्ठी का डाक खर्च कौन देता है?
बैरंग का मतलब ये है कि चिट्ठी भेजने वाले ने चिट्ठी पर डाक टिकट न लगाए हों. डाक टिकट के जरिए ही भारतीय डाक महकमा चिट्ठी पहुंचाने की फीस वसूला करता था. लेकिन ऐसा भी नहीं कि बैरंग चिट्ठी पर टिकट न लगाने पर डाक विभाग अपनी फीस नहीं लेगा. बैरंग चिट्ठी के लिए डाक विभाग की फीस उसे देनी पड़ती है जो चिट्ठी पाता है. अब इसमें जुर्माने के तौर पर दूनी फीस वसूलने का नियम बना लिया गया है. ऐसा क्यों किया गया ये भी रोचक है. इसे आगे बताया जाएगा.
क्यों बैरंग चिट्ठी की व्यवस्था की गई थी
डॉक विभाग पर शोधपरक किताब – ‘इंडियन पोस्ट -अ जर्नी थ्रू एजेज’ लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार अरविंद सिंह बताते हैं – “बैरंग चिट्ठी का मकसद ऐसे लोगों को फायदा पहुंचाना होगा जिनके पास किसी कारण से डाक टिकट की कीमत चुकाने तक के पैसे न हों. ऐसे लोग जरुरत पड़ने पर अपना संदेश सही जगह पर भेज सकते थे.”
राजीव गांधी की संचार क्रांति के पहले चिट्ठियां ही संदेश यहां से वहां पहुंचाने का जरिया थीं. संचार क्रांति हुई तो गांव-गांव, चौराहे-चौराहे पीसीओ खुल गए थे. लोग गांवों तक अपना संदेश सीधे पहुंचाने लगे. भले इसके लिए टाइम तय करके काल रीसीव करने के लिए दूसरी ओर किसी पीसीओ बूथ पर अपने जानने वाले को बुलाना पड़े. पहले लोग अपने घर के आस पास के किसी नंबर पर फोन करके अपने घर के किसी आदमी को बुलाने को कहते थे. फिर उसके आ जाने का अनुमान लगा कर फोन करके बातें कर लिया करते. उसके कुछ ही सालों बाद मोबाइल आ गए. अब तो वो हाथ ही सूना लगता है जिसने मोबाइल न पकड़ा हो. इस पूरी कवायद में चिट्ठियां सिर्फ सरकारी काम काज का हिस्सा रह गई हैं.
शायर मिर्जा ग़ालिब क्यों भेजा करते थे बैरंग चिट्ठी
खैर मसला बैरंग चिट्ठी का था. डाक महकमे ने अपनी शुरुआत के साथ ही बैरंग चिट्ठियों की भी व्यवस्था शुरु कर दी थी. यहां तक कि मशहूर शायद मिर्जा ग़ालिब भी बैरंग चिट्ठियां ही डाला करते थे. अरविंद सिंह ने इसका जिक्र भी अपनी किताब में किया है. मिर्जा का मानना था कि इससे दो फायदे होते थे, एक तो डाक विभाग बैरंग चिट्ठियों को पोस्ट करने का एक रसीद देता था. दूसरा उसे पैसा वसूलना होता था, लिहाजा वो चिट्ठी पाने वाले तक पहुंचाई ही जाएगी. बिना डाक टिकट वाली इन चिट्ठियों पर ऊपर सिर्फ लिखना होता था -बैरंग.
बैरंग चिट्ठी का बहुत महत्व था
गांवों में बहुत वक्त तक लोग इसी दलील के आधार पर जरूरी चिट्ठियां बैरंग ही भेजा करते थे. बैरंग चिट्ठी देख कर पाने वाले के माथे पर भी अक्सर बल पड़ जाते थे, कि कोई खास बात है तभी उसके किसी जानने वाले ने बैरंग भेजी है. अरविंद सिंह ने अपनी किताब में लिखा है कि साल 2002-03 में डाक विभाग को 1 करोड़ 82 लाख बैरंग चिट्ठियां मिलीं.
डाक विभाग को कई बार नुकसान उठाना पड़ता था
इसमें कई बार डाक विभाग को नुकसान हो जाता था. क्योंकि बाद में बैरंग चिट्ठियां डाक घर में देने की बजाय पोस्ट बाक्स में डाली जाने लगीं. अब उसमें भेजने वाले ने अपना पता नहीं लिखा सिर्फ पाने वाले का पता लिखा. पाने वाले को चिट्ठी जरुरी नहीं लगी और उसने लेने से इनकार कर दिया. अगर इस पर भेजने वाले का पता होता तो बैरंग को वापस उसके पास भेज कर डाक विभाग अपनी फीस वसूल करता. लेकिन यहां उसे घाटा उठाना पड़ता था.
बैरंग शब्द आया कहां से
इस बारे में अरविंद सिंह बताते हैं – “ये बेयरिंग चिट्ठी कही गई थीं. इसमें पाने वाले को डाक का खर्चा भुगतना पड़ता था. बाद में लोक में यही शब्द बैरंग के तौर पर चल गया.” बहरहाल, चिट्ठियों का ही दौर अब गैर जरुरी हो गया है. यहां तक कि सरकारी नौकरियों के लिए भी ज्यादातर फार्म ऑन लाइन ही भरे जा रहे हैं. शायद ही अब सरकारी महकमों में डाक से कुछ मंगाया जाता हो. डाक विभाग ने भी इसी की वजह से अपनी कई सेवाएं बंद ही कर दीं.
अब भी किसे बैरंग चिट्ठी भेजने का अधिकार है
इन सबके बाद भी सरकारी महकमों को बैरंग चिट्ठी भेजने अख्तियार है. इसके लिए उनके लिफाफों पर विभागों के नाम लिखे होंते हैं. उनके बार कोड छपे होंते हैं. ये अधिकार सरकार के मंत्रियों सीमित संख्या में सांसदों और पूर्व उपराष्ट्रपति को भी होते हैं. हो सकता है आपने भी देखा हो ऐसे लिफाफे, लिखा रहता है – भारत सरकार की सेवा में. ऐसे ही लिफाफे ब्रिटेन में भी चलन में रहे हैं – On Her Majesty’s service. ऐसा लिखे लिफाफे तब दिखते थे जब ब्रिटेन में महारानी एलिजाबेथ का शासन था. इन लिफाफों से डाक शुल्क नहीं वसूलने की रिवायत रही है।
प्रो. सुधाकर तिवारी
कुशीनगर, उत्तर प्रदेश



