
सामने मेरे ही है
कोई भूखा रोता,
कोई बच्चा मजबूर,
फुटपाथों पर सोता।
बच्चे पढ़ने को भी
न पाते हैं चाहकर भी।
बस मजदूरी में बेचारे
वे लग जाते हैं मजबूर।
क्या कह दूँ फिर भी
कि मैं जिन्दा हूँ साथी,
क्या मैं जिन्दा हूँ।
भरी महफिल में अमीरों के
सजीधजी सी किसी की
बहन है, बेटी है जो,
नाच रही इक नाजुक सी
बाला है धरती की बेटी।
स्वाभिमान रख गिरवी
सारे जज्बात सब वह।
अपना तनमन सबकुछ
वह बेच रही सफेदपोशों में।
देख रहे है उसको,
सब आंख खोलकर।
अन्याय का विनाश यदि
हम नहीं कर पाते हैं
फिर भी बोलो
क्या मैं जिन्दा हूँ।
बेचारा आज भी गरीब
फटे वस्त्रों में घूम रहा है।
मां बाप किसी के हैं
वृद्धाश्रम हैं भेजे जाते।
बिन दहेज इस समाज में
रह जाती है कोई कुंवारी,
दहेज की बलिवेदी पर
कोई है बलि चढ़ जाती।
देख सभी कुछ हम साथी
अपना मुख तक न खोलें,
फिर भी बोलो
क्या मै जिन्दा हूँ ?
डॉ.सरला सिंह ‘स्निग्धा’
दिल्ली




