साहित्य

माॅं  गंगा

डॉ अरविन्द "धवल"

गंगा नदी नहीं संस्कृति है, भारत माँ का प्राण है गंगा।
रोग शोक भव भय इन सबसे जनमानस का त्राण है गंगा।।
लालन पालन पोषण रक्षण क्या-क्या नहीं किया है इसने ,
माता की कर्तव्य पूर्ति का शाश्वत सिद्ध प्रमाण है गंगा ।।
माँ के पावन तटों ने हमको कितने साधक सिद्ध दिए हैं।
काशी हरिद्वार संगम से तीरथ राज प्रसिद्ध दिए हैं।।
गंगा की यदि कृपा न होती संत भगीरथ का क्या होता।
धरती के उद्धार हेतु उस ईश-मनोरथ का क्या होता।।
शिव की सूखी पड़ी जटाओं का कैसे अभिसिंचन होता।
हिमगिरि से सागर तक भारत माँ का क्षेत्र अकिंचन होता ।।
पंचायत में भला सत्य का कैसे हम प्रमाण दे पाते।
गंगा अगर नहीं होती तो कैसे गंगाजली उठाते ।।
गंगोत्री से गंगासागर तक सब ऊसर बंजर होता।
भूख कुपोषण का फिर चारों ओर भयानक मंजर होता।।
कहाँ नहाकर हम फिर पापी काया को कंचन कर पाते।
इस नश्वर संसार से कैसे आत्माओं को मोक्ष दिलाते।।
साधु संत ऋषियों मुनियों का कल्पवास कैसे होता।
और भला संगम में हम सबका प्रवास कैसे होता।।
गंगा माँ है और माँ ने सारे कर्तव्य निभाए हैं।
लेकिन पूत कपूत हुए सारे उपकार भुलाये हैं।।
कूड़ा कचरा गंदे नाले सब गंगा में डाल दिए।
हमने किये कुकर्म और गंगा की ओर उछाल दिए।।
चलता रहा यही सब तो फिर गंगा को खो देंगे हम ।
पालन पोषण करने वाली इस माँ को खो देंगे हम ।।
आओ लें सौगंध कि हम गंगा को स्वच्छ बनाएंगे ।
गंगा प्रहरी बन करके अपना कर्तव्य निभाएंगे।।
निर्मल-गंगा ,अविरल-गंगा यही हमारा नारा है।
इसको हम चरितार्थ करेंगे ये संकल्प हमारा है।।

*डॉ अरविन्द “धवल” बदायूं (उ.प्र.)*

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