वैसे तो आतंकवाद किसी धर्म की शिक्षाओं का परिणाम नहीं होता, बल्कि धर्म की विकृत व्याख्या से उत्पन्न कट्टरता का परिणाम होता है। इस्लाम, ईसाई, हिन्दू या किसी भी धर्म का मूल स्वरूप शांति, करुणा और न्याय का समर्थक है। परंतु कुछ समूहों ने इस्लाम के “जिहाद” सिद्धांत की गलत व्याख्या कर इसे हिंसा और रक्तपात का औजार बना लिया है।जिसमें मदरसों की भूमिका सबसे अधिक विस्फोटक है।
ज्ञातव्य है कि कुरआन की मूल शिक्षाओं में “जिहाद” का अर्थ आत्म-संघर्ष या सत्य के मार्ग पर दृढ़ रहना बताया गया है, परन्तु आतंकवादी संगठन इसे सशस्त्र संघर्ष के रूप में प्रस्तुत कर धर्म के नाम पर युवाओं को भटकाते हैं।इसके लिए मकतब और मदरसे तथा मौलवियों की एडी संख्या भी विद्यार्थियों का ब्रेन वाश करने के साथ ही साथ उनके मन,मस्तिष्क और आत्मा में काफिरों के प्रति नफरत का भाव भरा जाता है।यही कारण है कि उनके मन में हिंदुओं,जैनियों,बौद्धों,ईसाइयों,यहूदियों और पारसियों आदि समूहों के प्रति घृणा का भाव घर कर जाता है,जो कालांतर में आतंकवाद की मूल वजह बनता है।खाना गलत नहीं होगा कि देश के भीतर हुई आतंकवादी घटनाओं में जिस तरह से मुस्लिम आतंकवादियों के नाम प्रकाश में आते रहते हैं,उससे यह आवश्यक हो गया है कि मदरसों की शिक्षा व्यवस्था पर चर्चा अवश्य की जाये क्योंकि प्रत्येक आतंकवादी का शुरुआती जीवन कहीं न कहीं मदरसों से ही प्रारंभ हुआ मिलता है।इसके विपरीत विभिन्न माध्यमिक शिक्षा बोर्डों से शिक्षा प्राप्त विद्यार्थियों में ऐसी प्रवृत्ति बहुत कम दिखती है।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य में मुस्लिम चरमपंथी गुटों की चर्चा भी इस निमित्त समीचीन है।क्योंकि पिछले दो दशकों में जिन आतंकी संगठनों ने विश्व में आतंक फैलाया, उनमें अधिकांश का वैचारिक आधार इस्लाम की चरमपंथी व्याख्या रही।उदाहरणार्थअल-कायदा द्वारा ओसामा बिन लादेन के नेतृत्व में अमेरिका पर 9/11 का हमला।आई.एस.आई.एस.द्वारा सीरिया-इराक क्षेत्र में इस्लामी खिलाफत की स्थापना का प्रयास।लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद – भारत में पुलवामा, संसद, और मुंबई हमलों जैसे कृत्यों में संलिप्त तथा तालिबान – अफगानिस्तान में शरीयत आधारित शासन थोपने की हिंसक नीति।इन संगठनों की गतिविधियों ने यह स्थापित किया कि धर्म के नाम पर आतंक फैलाने वाले तत्व वैश्विक इस्लामिक समाज का बहुत छोटा किन्तु प्रभावी वर्ग हैं, जिन्होंने सम्पूर्ण मुस्लिम समाज की छवि को भी आघात पहुँचाया है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में इस्लाम शताब्दियों से भारतीय संस्कृति का अंग रहा है। अधिकांश भारतीय मुस्लिम शांतिप्रिय और राष्ट्रनिष्ठ हैं, परंतु कुछ विदेशी संगठनों के प्रभाव से अल्पसंख्यक वर्ग के कुछ युवक “इस्लामिक जिहाद” के अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क से प्रभावित हुए।उदाहरणार्थ —
2008 का मुंबई आतंकवादी हमला : लश्कर-ए-तैयबा द्वारा संचालित।2019 का पुलवामा हमला : जैश-ए-मोहम्मद का प्रशिक्षण और वित्त पोषण।
जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश , इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठन – देश में बम विस्फोटों के कई मामलों में शामिल पाए गए।इन घटनाओं में सीधी या परोक्ष संलिप्तता रखने वाले चरमपंथी मुस्लिम युवक अधिक देखे गए, किंतु इन्हें पूरे मुस्लिम समाज का प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता है।
अगर गौर से देखा जाय तो धार्मिक कट्टरता और मस्तिष्क-धोवन ही इसका मुख्य कारण है क्योंकि विदेशी मुल्ला-मौलवियों द्वारा जिहाद की गलत व्याख्या की जाती है। जिससे भारतीय युवा भी प्रेरित होकर आतंकवादी घटनाओं में संलिप्त होते रहते हैं।सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन ,बेरोजगारी और हाशिये पर पड़ी स्थिति का दुरुपयोग करके भी युवाओं को आतंकवाद की आग में धकेलना मौलवियों का कुचक्र कहा जा सकता है।इसके अलावा कुछ विदेशी शक्तियाँ भारत में अस्थिरता फैलाने के लिए इस्लामी पहचान का उपयोग करती हैं।यही कारण है कि इंटरनेट के माध्यम से युवाओं को उकसाना, फर्जी वीडियो और धार्मिक भाषणों द्वारा वैचारिक दुष्प्रभाव पड़ता है।
अतएव इसके समाधान हेतु निम्न उपाय तुरंत अमल में लिए जाने चाहिए –
धार्मिक नेतृत्व की जिम्मेदारी बनती है कि उनके मुस्लिम विद्वानों, उलेमाओं और इमामों को सार्वजनिक रूप से यह स्पष्ट करना चाहिए कि आतंकवाद इस्लाम-विरोधी कर्म है।मदरसों और मुस्लिम शिक्षण संस्थानों में आधुनिक शिक्षा, नागरिकता और शांति का पाठ जोड़ा जाए।मुस्लिम समाज के युवाओं को सुरक्षा बलों, प्रशासन और नीति-निर्माण में अधिक भागीदारी मिले ताकि अलगाव की भावना समाप्त हो।उन युवाओं की पहचान कर, जो आतंकवादी प्रचार से प्रभावित हैं, उन्हें वैचारिक पुनर्वास के माध्यम से मुख्यधारा में लाया जाए।इसके साथ ही मदरसों के पाठ्यक्रम को माध्यमिक शिक्षा परिषद की ही तरह निर्धारित करते हुए वहां भी विभिन्न विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए।
धर्म कभी हिंसा का कारण नहीं बनता — हिंसा उन लोगों की सोच से जन्म लेती है जो धर्म को सत्ता और भय का उपकरण बनाते हैं।मुस्लिम समाज के 99% लोग शांति, भाईचारे और भारत की एकता के पक्षधर हैं।किंतु इनका खुलकर आतंकवादियों की निंदा न करना भी परोक्ष समर्थन देने जैसा होता है।लिहाजा उदारवादी मुस्लिमों को प्रत्येक देश विरोधी घटनाओं की मजम्मत करनी चाहिए।इसके अतिरिक्त आतंकवाद में लिप्त अल्पसंख्यक वर्ग को यदि धार्मिक नहीं, अपराधी मानसिकता के रूप में देखा जाए तो समाधान संभव है।भारत की सुरक्षा तभी सशक्त होगी जब हर धर्म, हर समुदाय आतंकवाद के विरुद्ध एक स्वर से कहे कि “हिंदी हैं,वतन है हिंदोस्ता हमारा”




