साहित्य

मेरी पीर न जाने कोय (व्यंग्य)

वीणा गुप्त

आज बहुत दिनों के बाद सुबह की सैर पर निकला। सोचा, प्रकृति के दर्शन होंगे। प्रकृति का नजा़रा तो देखा ही,साथ ही साथ देश की पीर का दृश्य भी देख आया। सुबह- सुबह प्राकृतिक परिवेश में नित्यक्रिया से निवृत्त होता देश का वर्तमान और भविष्य, कचरे के ढेर पर मुंँह मारता देश का पशुधन, रोज लगती और रोज उखाड़ कर ,बेची जाती रेलिंगो के सहारे , आजीविका अर्जित करते , गरीबी रेखा पर खड़े देश के जन- गण की पीड़ा देख,मन अधीर हो गया। सचमुच, कितनी पीर है देश में, और हमें इसका पता ही नहीं था। हर कोई रो रहा है।
चहुंँ दिसि चीखों-पुकार मची है। ‘ मैं तो दरद‌ दीवाना, मेरी पीर न जाने कोय।, सचमुच बड़ी शर्म आई,अपनी इस ग़फ़लत पर। चुल्लू भर पानी तलाश ही रहा था कि एक मैले-कुचैले नौनिहाल ने आकर मेरा दामन थाम लिया और गुहार लगाई,” ऐ अंकल, कुछ दे ना। सूबू से कुछ नईं खाया। ऐ,दे ना, अंकल।” अंकल संबोधन सुनते ही मेरा मन भाव- विह्वल हो उठा। कितनी आत्मीयता भरी है मेरे देश में । विवेकानंद जी इस आत्मीयता के बलबूते पर ही ,भाषण देने से पहले ही, शिकागो धर्म सम्मेलन में छा गए थे। हम हर किसी को अपना कहते आए हैं, पर मानते कितना हैं,यह अलग विषय है।
पहले हम बाबा , भैया, माई-बाप ,माताजी , अम्मा आदि संबोधन करते थे,अब अंग्रेजी फैशन के चलते सारी आत्मीयता अंकल- आंटी में समा गई है, लेकिन रिश्तों की गर्माहट वहीं है। मैं आत्मीयता के सैलाब में बहा जा रहा था कि भतीजेनुमा पीर ने जोर से मेरा कुर्ता खींचा,और दांत निपोर कर बोला,”ऐ अंकल,दे ना “मैंने सोचा कि क्यों न ताजा-ताजा पैदा हुई आत्मग्लानि से छुटकारा पाया जाए, फौरन उसे पांँच का नोट थमाया और आगे बढ़ा, लेकिन बढ़ नहीं पाया। देश की पीर ने रास्ता रोक लिया। दो-चार मैली- कुचैली पीरों ने मुझे घेर लिया और उन पीड़ाओं की जननी सड़क की पटरी पर बैठी जुओं से भरा सिर खुजा रही थी।बड़ी मुश्किल से उनसे छुटकारा पाया।

घर पहुंँचा तो सोचा आज श्रीमती जी से इसी विषय पर बात करेंगे। ‘ गर्म चाय और देश की पीर’ कितना यूनीकऔर बौद्धिकता भरा विषय है।भाव और बुद्धि का सुपर कॉम्बीनेशन। आकर कुर्सी पर बैठा ही था कि श्रीमती जी आईं। अकेले नहीं, अपनी पीर भी साथ लाईं थीं। उनकी पीर बड़ी जैनुइन थी। बोलीं,” एक हफ्ते की छुट्टी लेकर गई है महारानी गांँव में। कह रही थी कि मांँ बीमार है। झूठी कहीं की।अब खटो दिनभर चूल्हे में।” और वे सोफे पर पसर गईं।
मैं फौरन देश की पीर भूल गया । श्रीमती जी की, महारानी की मांँ की,और इस वजह से खुद को होने वाली पीर का एहसास मुझे बड़ी शिद्दत से  होने लगा। अपनी उपेक्षा होती देखकर देश की पीर मुझे शिकायत भरी नजरों से देखने लगी। मैं क्या करता,कह दिया उसे,”अरे भई,यहांँ अपनी ही पीर से छुटकारा नहीं मिल रहा, तो तेरी पीर कैसे देखूंँ।”
और अब तो आलम यह है कि मर्ज़ बढ़ता गया,ज्यों -ज्यों दवा की।और भईया,हम तो दवा क्या ,दुआ करने से भी बाज नहीं आए। हर समय दुआ करने की सुविधा रहे, यह सोचकर भगवान जी का अपहरण कर उसे भी मंदिर से घर में ले आए। जकड़ दिया उसे भी छुआछूत,ऊंच-नीच,जाति-
पांति के बंधनों में। और इस कदर जकड़ा कि वह बेचारा भी पुकार उठा,”मेरी पीर न जाने कोय।”

अब तो बंधु,यह पीर अपार अनंत होती जा रही है। सुरसा का मुंँह, हनुमान की पूंँछ,राजनीति की मूंँछ, सभी इसके सामने बौनी पड़ गई हैं। पीर का परबत ऊंँचा और ऊंँचा होता जा रहा है,और अब तो दुष्यंत कुमार जैसे जांबाजों ने भी उसमें से गंगा निकलने की आस छोड़ दी है। और गंगा निकले भी तो कैसे? उसके निकालने का बजट तो प्रसाद की भांति  ऊपर से नीचे तक, यहांँ से वहांँ तक , कभी कमीशन,कभी चंदे, कभी प्रबंधन, कभी क्षतिपूर्ति, कभी मुनाफाखोरी के नाम पर कहांँ से कहांँ तक बंट चुका है। कितनी भी तपस्या कर लें भगीरथ,अब सगरपुत्रों की अतृप्त आत्माओं का कुछ नहीं हो सकता। हांँ, अगर वे चाहें तो इस प्रजातंत्र की मरूभूमि में भटक -भटक कर, जंतर-मंतर पर,रेल की पटरियों पर, संसद से सड़क तक कहीं भी ,हर- गली कूचे में स्वर बुलंद कर सकती हैं,

“मेरो दर्द न जाने कोय”।
पर होगा कुछ भी नहीं। ज्यादा से ज्यादा आंदोलन- अनशन कर लेंगी। नारे लगा लेंगी, शासन की लाठियांँ खा लेंगी, टी. आर .पी बढ़ा लेंगी, सुर्खियों में छा लेंगी,पर नतीजा वही होगा शून्य बटा सन्नाटा।
एक पीर और भी खड़ी है मेरे इस देश में।’अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,’ वाले स्टाइल की। यह युगों-युगों की पीर है। मीरा बाईं ने इसकी जोर -शोर से पुष्टि की थी,
” मैं तो प्रेम दीवानी,
मेरो दरद न जाने कोय।”

जब सब जानती हो, तो काहे को पुकार रही हो मीरा रानी? तेरी पीर तो न उस युग में किसी ने जानी थी और न ही यह युग ,जानने को क्या ,मानने को भी तैयार हैं। अब तो “लव जिहाद” का और ‘लिव इन’ का नया बखेड़ा खड़ा हो गया है। तेरा चुप होना ही ठीक रहेगा। तू भले ही कितना शोर मचा ले, आसमान में उड़ जा, पाताल फोड़ दे, अपनी शक्ति- सामर्थ्य के परचम जगह-जगह गाड़ दें पर हमारे अंधे- गूंगे, मल्टीपल ऑर्गन फेल्यिर वाले समाज के अहं पर जूं तक नहीं रेंगेगी। तू भी बहुत सी झूठी संवेदनाएं बटोर लेगी,लोग मोमबत्तियां जला लेंगे,नारे लगा लेंगे, विपक्ष की छीछालेदर कर लेंगे, फिर तू भी हाशिए से रपट जाएगी। सदा की भांति खो जाएगी।यह समाज तुझे ज़हर देने से बाज नहीं आएगा। तुझे पैदा ही नहीं होने देगा।और अगर पैदा हो गई तो तुझे ‌ये सोचने पर मजबूर कर देगा कि तू पैदा ही क्यों हुई। मत सोच, कोई तुझे तेरी पीर से निजात दिलाने आएगा। तुझे खुद ही रास्ता ढूंढना होगा।
लेकिन  हम सभ्य होने का दम भरते हैं। और अब तो सभ्यता को भी पीर का बढ़ता साम्राज्य देख पीड़ा होने लगी है। अरे भ ई,
कुछ तो लाज रख लो सभ्यता की। माना कि हमारी कथनी और करनी में छत्तीस का आंकड़ा है,पर कभी तो दोनों को एक होने दो। देश की महान परंपरा की विरासत संभालने का दावा करते हो,कभी तो महानता की ओर बढ़ों। ‘मैं मैं’ की बकरी भाषा छोड़,’हम हम’ की सिंह गर्जना करो। आदर्शों का भार कब तक ढोते रहोगे, कभी तो व्यवहार के ठोस धरातल पर उतरो।अपने से परे देखो।अधिकार से पहले कर्त्तव्य निभाना सीखो। तभी तो पीर दूर होगी सबकी और कबीर मग्न मन गा पाएंगे:-
कबिरा सोई पीर है,
जो जाने पर पीर।।
जो पर पीर न जानहिं,
सो काफ़िर बेपीर।।

वीणा गुप्त
नई दिल्ली

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