साहित्य

मक्कार

- डॉ.उदयराज मिश्र

जिम्मेदारियां निभाते निभाते –
जो जिंदगी से थके नहीं
झंझावातों में,तूफानों में,
चलते रहे,रुके नहीं
उनके अपने ही-स्वार्थपूर्ति होने पर
आहिस्ता आहिस्ता कट गये
जब जब पुकारा उसने –
सुनते ही हट गये
कुछ रिश्तेदार तो –
बिल्कुल मक्कार निकले
आस्तीन के सांप बन
भेदिया गद्दार निकले
अब तो पल पल हरपल
गिराने को सोचते हैं
कृतघ्नता से लबरेज हो
मर्यादा को नोंचते हैं
फिर भी वह कुछ समझ नहीं पाता है
सबकी कुशल क्षेम राम से मनाता है
गिरगिट भी मानवों के
इस आचरण से दंग है
स्वार्थ मानवों का
सबसे बड़ा भुजंग है।।

– डॉ.उदयराज मिश्र

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