साहित्य

मुझको दुःख से प्यार हो गया

चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा"अकिंचन,"

मुझको दुःख से प्यार हो गया।
सहते सहते दुःख मुझे बन्धुवर,
मुझको दुःख से प्यार हो गया।
काँटों की शैय्या क्यों कह दूँ –
जब गुलाब सा यार हो गया।।
टिसता था जो फुंसी बनकर ,
वो व्रण फूटा निःसार हो गया।
उर की पीड़ा नयनों ने ले ली,
रिमझिम था मल्हार हो गया।।
गति पकड़ा पागल बयार ने —
पुरवा पछुवा में मिलन हो गया।
स्नेह दिया था जिस बाती को –
वर्तिक से ही गृह दहन हो गया।।
चुल्लू भर क्यों कहते इसको-
जब डूबे तो मँझधार हो गया।
था दिया सहारा तिनको ने ही ,
माँझी के हित पतवार हो गया।।
जहर उगलते ही विषदन्ती के,
सारा पयशाला खार हो गया।
था पाला व पोसा दुग्ध पिलाया,
वह आस्तीन का साँप हो गया।।
गिद्ध बने मनुवंशी जबसे,
आसमान वीरान हो गया।
रंग बदलते हैं गिरगिट सा –
गुणधर्मी इन्सान हो गया।।
प्राण प्रतिष्ठित हुआ मूर्ति में,
मूर्तिकार गुमनाम हो गया ।
चढ़ा चढ़ावा प्रभु चरणों में,
सकल पुजारी नाम हो गया।।
थाल सजा जिस हित पूजा का,
वो अवलोकी अवलोप हो गया ।
पास समझता था जिसको मैं,
वो तारक अपरम्पार हो गया।।
✍️ चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा”अकिंचन,”गोरखपुर।
चलभाष -९३०५९८८२५२

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