धर्म/आध्यात्म

नामैव हरति पातकम

डॉ. उदयराज मिश्र

विश्व की सभी प्राचीन और आधुनिक धार्मिक परंपराओं में यदि एक सत्य निर्विवाद रूप से समान दिखाई देता है, तो वह है—ईश्वर के नाम का स्मरण। सनातन धर्म में मंत्र-जप, राम–कृष्ण–शिव–देवी के नाम; इस्लाम में कलिमा और तस्बीह; ईसाई धर्म में रोज़री; सिख पंथ में ‘वाहे गुरु’; जैन और बौद्ध परंपराओं में मंत्र, सूत्र और त्रिरत्न का ध्यान—सबका मूल उद्देश्य एक ही है: मन की शुद्धि और आत्मा का परिष्कार।यही कारण है कि यह प्रश्न बार-बार उठता है कि क्या केवल नाम जपने से मनुष्य पापों से मुक्त हो सकता है? क्या जप वास्तव में मोक्ष, स्वर्ग या जन्नत जैसी अवधारणाओं की राह खोल देता है? या फिर यह केवल धार्मिक अनुष्ठान भर है?

इन सभी प्रश्नों का उत्तर भारतीय अध्यात्म स्वयं देता है।शास्त्रों में जप की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि –
जकारो जन्मविच्छेदः पकारः पापनाशकः।
तस्मात् जपः प्रोक्तो जन्मपापविनाशकः।।
इस श्लोक के अनुसार ज जन्म-मरण के अंत का, और प पाप-शमन का प्रतीक है। अर्थात जप वह माध्यम है जो जीव को आवागमन और कर्मबाधाओं से मुक्त करता है।
इसी तरह नाम संकीर्तन अर्थात जप की महिमा का वर्णन करते हुए शास्त्रों में इस प्रकार भी वर्णन मिलता है।यथा –
नाम संकीर्तनम् यस्य सर्व पाप प्रणाशनम।
प्रणामो दुख शमनसस्तम नमामि परमं हरिम।।
धार्मिक विविधताओं में एक साझा आध्यात्मिक धागा
नाम संकीर्तन अर्थात जप ही है।आज जब वैश्विक समाज अनेक धार्मिक मतों और संस्कृतियों में विभक्त प्रतीत होता है, जप एक ऐसा तत्त्व है जो सभी को एक सूत्र में बांधता है। ईश्वर का स्मरण किसी मत-विशेष का अधिकार नहीं, बल्कि मानव चेतना की एक मौलिक आवश्यकता है।यह वही प्रक्रिया है जो—मन को केंद्रित करती है,चित्त को निर्मल बनाती है,और व्यक्ति को अपने भीतर स्थित दिव्यता से जोड़ती है।इसीलिए तुलसीदास ने दृढ़ता से कहा—
“कलियुग केवल नाम अधारा।
नर उतरहिं भवसिंधु अपारा।”
यानी इस युग में केवल नाम ही वह नौका है जो संसार-रूपी समुद्र से मानव को पार लगा सकती है।
अजामिल का उद्धार भी नाम की निरपेक्ष शक्ति की महिमा को दर्शाता है।अजामिल एक पतित जीवन जी रहा था। किंतु मृत्यु समय उसने अपने पुत्र को पुकारते हुए कहा—“नारायण!शब्द वही थे, भाव संयोगवश, पर परिणाम अद्भुत हुआ। विष्णुदूत तत्काल पहुँच गए और उसे यमदूतों से मुक्त कर दिया।यह दृष्टांत बताता है कि नाम जप हेतु पवित्रता की पात्रता नहीं, बस उच्चारण की आवश्यकता है।
द्रौपदी का चीर-हरण — नाम की रक्षक शक्ति का द्योतक कहा जा सकता है।सभा में जब मर्यादा लांघी जा रही थी, द्रौपदी ने पहले स्वयं चीर बचाने का प्रयास किया। असफलता के अंतिम क्षण में जब उसने दोनों हाथ जोड़कर पुकारा—“हे कृष्ण!”—तब जप ने तत्काल रक्षा-कवच का काम किया।अर्थ स्पष्ट है नाम स्मरण संकट में ढाल बन जाता है
शबरी की साधना नाम का आकर्षण-तत्त्व का परिचायक है।शबरी को उसके गुरु ने बस इतना उपदेश दिया—“राम नाम जपती रहना।वह जपती रही, साधना में रमी रही, और अंततः राम स्वयं उसके आश्रम पहुँचे।यह दिखाता है कि नाम-जप केवल साधक को ही नहीं, ईश्वर को भी साधक की ओर खींचता है ।स्वयं प्रभु श्रीराम ने शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हुए मंत्र जाप अर्थात नाम संकीर्तन को प्रमुख भक्ति माना है।प्रभु ने शबरी से कहा है कि –
मंत्र जाप मम दृढ़ विश्वासा।
पंचम भगति सो वेद प्रकाशा।।
जप को सरल, सुलभ और सर्वस्वीकार्य साधना माना जाता है।क्योंकि ध्यान कठिन है, योग-तप सबके लिए संभव नहीं, यज्ञ और अनुष्ठान समय, साधन और विधि से बंधे हैं। परंतु नाम—न तो किसी काल से बंधा है,न परिस्थिति से,न पात्रता से।पापी हो या पुण्यात्मा, शिक्षित हो या अनपढ़, प्रसन्न हो या निराश,नाम स्मरण सभी के लिए समान रूप से प्रभावी है।इसीलिए कहा गया—
राम रामेति रामेति… सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने।
यानि एक बार राम नाम का स्मरण, सहस्र नामों के जप के समान फलदायी है।
आज जब मनुष्य तनाव,असुरक्षा,मानसिक अशांति,और मूल्य-संकट से जूझ रहा है, जप मनोवैज्ञानिक स्थिरता का भी श्रेष्ठ औषध है।जप—अवसाद को घटाता है,भय को कम करता है,मन में आशा भरता है,और नकारात्मकता को रूपांतरित करता है।तमाम शोध बताते हैं कि नाम-स्मरण की लयबद्ध प्रक्रिया मस्तिष्क तरंगों को शांत करती है, और व्यक्तित्व में स्थिरता लाती है।
जप क्यों?क्योंकि—जप मन को ईश्वर की दिशा में मोड़ता है।जप पापों की धूल धो देता है।जप आत्मा को उसके मूल स्वरूप से पहचान कराता है।
जप ही वह पुल है जो जीव को परमात्मा से जोड़ देता है।
इसीलिए वेद-वेदांत, पुराण, गुरुग्रंथ, बाइबिल, कुरान—हर ग्रंथ अंततः मानव को नाम-स्मरण की ओर ही ले जाते हैं। क्योंकि यही वह साधन है जो—सरल भी है,सुलभ भी है,सार्थक भी है और इसलिए यह सत्य अक्षरशः सिद्ध होता है—
“जपतो नास्ति पातकम”
इस प्रकार इसमें कोई संदेह नहीं कि नाम स्मरण करने वाले के लिए कोई पाप शेष नहीं रहता।

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