
प्रेम कह सके ऐसा ठिकाना नहीं है,
दिल में भावों का निशाना नहीं है।
मां ने पीरोके रखा था परिवार एक धागे से,
व्यंजनों में मां के हाथ का निवाला नहीं है।
प्यार की चार दीवारी मैं कैद पोता-पोती,
दादा- दादी के प्यार का सहारा नहीं है।
कितना मज़ा था चिट्ठी खोलकर पढ़ने का,
मेहमान नवाजी का वह नज़ारा नहीं है।
ट्रेन की सफ़र में था परिवार सा एहसास,
पड़ोसियो में प्यार का तराना नहीं है।
लाखों मित्र हैं मेरे मोबाइल पर तो,
दिल की दहलीज़ का दिवाना नहीं है।
– उर्मिल पंड्या, अंकलेश्वर



