
शादियों का सीजन था,
बहुत से निमंत्रण आ रहे थे।
उनके वजन को तोल-तोल,
हम उनमें जाने,
न जाने का ,
प्रोग्राम बना रहे थे।
रसना तो हर स्वाद
चखना चाहती थी।
पर जेब की मार ,
स्वाद पर भारी पड़ जाती थी।
तीन इन्वीटेशन
एक ही दिन के थे आए।
वैन्यू पास होने के कारण,
वे हमारे मन को भाए।
सोचा एक पंथ
तीन काज हो जाएँगे।
एक ही बार तैयार होकर,
तीन शादियांँ निबटा आएँगे।
प्रोग्राम श्रीमती जी को बताया।
पहली बार उनसे समर्थन पाया।
तिथि देखी इन्वाइट की,
तो वह मुस्कायीं,
बोलीं, बड़ा शुभ दिन है ,
है भारी साया।
इसी दिन तो तुमने
मुझे था पाया।
कैसे भुलक्कड़ हो,
एनीवर्सरी तक भूल जाते हो,
भूलते हो ,
या गिफ्ट देने से घबराते हो?
हमने बिगड़ी बात संभाल,
उन्हें फुसलाया।
भूले नहीं हैं,इसलिए तो
आज का प्रोग्राम बनाया।।
आऊटिंग भी हो जाएगी,
एनीवर्सरी भी मन जाएगी,
डिनर भी जायकेदार हो जाएगा,
महज तीन सौ तीन रूपयों में,
सारा काम हो जाएगा।
हींग-फिटकरी लगाए बिना,
रंग चोखा आएगा।
जेब भी हमारी,
राहत की सांस पाएगी।
जो बचेगा,उससे तुम्हारी
साड़ी आएगी।
आखिर वो तिथि आ गई,
जिसका इंतजार था।
श्रीमती जी मेकअप हेतु,
ब्यूटी पार्लर सिधाईं।
इधर यादें पुरानी
‘मूड आफ’ करने
हम तक चली आईं।
सेहरा बंधवाते समय
नहीं जानते थे
कि आफ़त ला रहे थे।
बाद में समझ आया,
बैंडवाले क्यों उस दिन
मातमी धुन बजा रहे थे।
बुझे मन से होने लगे तैयार ,
पुरानी यादों ने,
तबियत कर दी थी बेकार।
तभी श्रीमती जी आ गईं
होकर तैयार।
हमसे काम्पलीमेंट चाहती थीं।
हमने अभिनय का लिया सहारा,
आँखों में प्यार भर,
प्रशंसा भाव से निहारा।
श्रीमती जी शरमाईं,
हम मुस्काए सोच यह ,
जान छूटी भाई।
फिर चल दिए
शादी नम्बर एक की ओर।
वहाँ पहुँचे ही थे ,
कि बारात आती दी दिखाई।
मरियल सी घोड़ी पर ,
सवार था वर तगड़ा सा
पूरा हातिमताई।
घबराना चाहिए था घोड़ी को,
मगर लड़का घबरा था
फिसल न जाए कहीं,
खुद को घोड़ी पर ,
बार-बार जमा रहा था।
मंडप विवाह का खूब ,
जगमगा रहा था।
वधू-पक्ष के पैसों की ,
होली जला रहा था।
जलपान कर वहाँ,
शगुनी लिफाफा थमा,
चले शादी नंबर दो की ओर।
हमारे दोस्त की ,
बेटी की शादी थी ।
तगड़े दाम देकर उन्होंने ,
लड़का खरीदा था।
वर-पक्ष की बाँछें खिली थीं।
ढेर सा दहेज,
और लड़के से योग्य
लड़की जो मिली थी।
इधर बाप लड़के का,
पब्लिक में दहेज-विरोधी
इमेज बना रहा था।
साधुवाद पा रहा था।
यहाँ से निबट पहुँचे हम
शादी नंबर तीन की ओर ।
यह प्रेम विवाह था,
लड़का-लड़की पड़ोसी थे।
गली-छज्जे,पार्क,मॉल में
कॉफी पीते,
पॉप कॉर्न चबाते हुए,
पी. वी .आर में,
उनके प्यार ने
परवान पाया था।
लड़की जिस कॉलेज में
पढ़ रही थी,
लड़के ने वहीं,
गुरू-पद पाया था।
लड़की को पढ़ाई से ज्यादा,
गुरु पसंद आया था।
लरिकाई का प्रेम,
साहचर्य गत बन कर
खूब रंग लाया था।
वैसे भी यह लव की
परफेक्ट सिचुएशन थी।
किसी की न सुनने वाली
यह नई जेनरेशन थी।
दोनों के पैरेंट्स ने भी
प्रैक्टिल दिमाग पाया था ।
तभी प्रेम- कथा का यह,
मधुर क्लाईमैक्स आया था।
मंडप मस्ती से
गहमा रहा था।
कनफोड़ू संगीत पर,
सब के साथ ,
वर-वधू का जोड़ा भी ,
डी. जे.पर,
ठुमके लगा रहा था।
माँ-बाप बलैया ले रहे थे,
मित्र-मंडल जाम पर जाम,
चढ़ा रहा था।
वहाँ एक और भी,
स्वादिष्ट नजारा था।
भोजन पर कइयों ने,
एक साथ धावा मारा था।
प्लेट में ढेर खाना ला रहे थे,
संजीवनी पर्वत उठाए
हनुमान नजर आ रहे थे।
पेट से ज्यादा खा रहे थे,
बचे हुए खाने को,सुविधा से,
डस्टबिन में खिसका रहे थे।
अजब धक्कम-पेल थी,
शिष्टाचार की धज्जियाँ
उड़ रही थीं।
किसी को किसी से
न मतलब था कोई,
बस भोजन की तश्तरियाँ
दिख रहीं थीं।
हम भी लक्ष्य की ओर लपके,
लक्ष्य भेदन को उद्धत,
अर्जुन की तत्परता लेकर।
पर श्रीमती घबरा रही थीं।
भीड़ में घुसने से,
कतरा रही थीं।
हमने उन्हें
एक कोने में सहेजा,
और संंधर्ष में लग गए,
थोड़ी देर में खाना ला रहे थे।
सिकंदरी -गर्व से
मुसकरा रहे थे।
शादी की रस्में
अभी बच गई थीं,
मगर खा पीकर
भीड़ छँट गई थी।
हमने भी
जाने का विचार किया।
शगुन का लिफाफा
निकाल लिया।
जब मंच पर पहुँचे तो ,
वर -वधू को नदारद पाया।
खोजने को उन्हें जब,
इधर -उधर नजरें घुमाईं,
तो उन्हें ,
उनके पिताश्री के
पास खड़ा पाया।
बाप से कह रहा था बेटा,
डैड! हम तो हो गए,
यहाँ बैठे -बैठे बोर।
ज़रा घूम आएँ ,
रिलेक्स हो जाएँगे।
फेरों तक वापस आ जाएँगे।
पिता ने गाड़ी की चाभी ,
बेटे को थमाई,
हमारे नेत्रों में,
जिज्ञासा भर आई,
समाधान को हमारे
बोले पिताजी,
हमारे -तुम्हारे जमाने की
शादी नहीं यह भाई।
नए जमाने की,
नई तर्ज़ की शादी है।
बच्चे वयस्क हैं,
उन्हें पूरी आजादी है।
हम बोले,
यार बात तुम्हारी
सेंट परसेंट सही हैं।
नए युग ने सच ही,
पुराने मूल्यों को
नई कसौटी दी है।
सच ही तो है,
हर बात हर समय ,
होती नहीं सही है।
बदले जो साथ समय के,
सही ज़िंदगी तो ,
होती वही है।
वीणा गुप्त
नई दिल्ली




