आलेख

प्रेरक प्रसंग “दीपक की लौ”

सुषमा श्रीवास्तव

प्रेरक प्रसंग “दीपक की लौ”

गाँव के छोटे-से घर में तीन लोग रहते थे—नम्रता, उसके पिता शिवनाथ और दादी सावित्री। उस दिन घर का माहौल बहुत भारी था। नम्रता की आँखों से आँसू बह रहे थे, पिता की आँखों में चिंता थी और दादी उसे सहला रही थीं। घर के बीचोंबीच दीपक जल रहा था, जिसकी लौ मानो कह रही थी—“अभी सब खत्म नहीं हुआ।”

नम्रता बचपन से पढ़ाई में तेज थी। उसका सपना था कि वह डॉक्टर बने और गाँव के गरीब लोगों का इलाज करे। लेकिन खेती चौपट हो गई थी, कर्ज सिर पर था और मेडिकल कॉलेज की फीस इतनी ज़्यादा कि उसका सपना टूटता दिखाई दे रहा था।
नम्रता ने रोते हुए कहा—
“पिताजी, लगता है मेरा सपना यहीं खत्म हो जाएगा।”

तभी दादी ने दीपक की ओर इशारा करते हुए कहा—
“बेटी, देख इस दीपक को। तेल कम है, फिर भी लौ बुझती नहीं, क्योंकि बाती अब भी जली है। सपनों की लौ भी ऐसे ही होती है। हालात चाहे जैसे हों, जब तक उम्मीद की बाती है, रोशनी बुझती नहीं।”

दादी की बातें नम्रता के मन को छू गईं। अगले ही दिन उसने गाँव के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। पिता ने भी शहर जाकर मेहनत-मजदूरी करनी शुरू की। धीरे-धीरे कुछ पैसे इकट्ठे हुए। गाँववालों ने भी मदद की—कोई सौ रुपये लाया, कोई पाँच सौ। सबने कहा—
“बेटी, तू हमारी उम्मीद है।”

पैसे पूरे न होने पर भी नम्रता ने हार नहीं मानी। उसने छात्रवृत्ति परीक्षा दी और मेहनत के दम पर स्कॉलरशिप जीत ली। अब उसका रास्ता खुल गया। उसने मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया और पढ़ाई में जी-जान से जुट गई।

सालों की मेहनत के बाद, एक दिन वही नम्रता डॉक्टर बनकर गाँव लौटी। उसी दीपक के सामने खड़ी होकर बोली—
“आज मैं जो भी हूँ, इस लौ और आपके आशीर्वाद से हूँ। अब इस गाँव का कोई गरीब इलाज के बिना नहीं मरेगा।”

दीपक की लौ जैसे और तेज़ चमक उठी।

सुषमा श्रीवास्तव, रूद्रपुर, ऊधम सिंह नगर, उत्तराखंड।

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