
मैं द्रोण,
महाभारत के
प्रमुख पात्रों में से एक
महान् धनुर्धर, चिंतक,योगी,
हस्तिनापुर के कुरू-कुमारों का, आचार्य ,प्रतिष्ठित,सम्मानित।
लेकिन अपनी ही दृष्टि में,पतित।
अहंकारी,कुटिल ,निर्मम।
गुरु-कुल कलंक।
पश्चाताप की अग्नि में
जल रहा हूँ ।
शनैः शनैः
नि:श्शेष हो रहा है
अस्तित्व मेरा।
स्वयं की नजरों में गिरना।
सचमुच दुःखद है।
विडंबना यह,
कि मेरे इस रूप से
सभी हैं अपरिचित।
और यदि कोई परिचित भी हो
तो क्या फर्क पड़ता है,
कौन उठाएगा,
उंगली आक्षेप भरी ?
मुझपर ,सिवा मेरे।
साहस है किसमें?
उजागर करेगा ,
जो कुरूप सत्य को मेरे।
जीवन रथ-चक्र
अतीत की गलियों में
मोड़ूँ तो,पाता हूँ।
एक कंगाल, ब्राह्मण को,
वहन कर रहा ,
जो शस्त्रास्त्रों का दुर्वह भार
परशुराम का अन्यतम शिष्य,
पर जीवन है जिसका,
निरर्थक, बेकार।
अपने इकलौते पुत्र के लिए
जो जुटा न पाया।
एक बूँद भी गो-पय की।
देखता रहा,
दूध के नाम पर,
बच्चे को आटे का घोल पिलाती,
पत्नी की विवशता।
ओर प्रवंचित शैशव की
संतुष्टि भरी मुस्कान ।
जो मेरा कलेजा चीर गई थी।
इसी घाव को भरने,
पीड़ा पर चंदन लेप करने,
आत्मसम्मान को छोड़,
एक व्याकुल व्यथित पिता,
गया था राजा द्रुपद के पास,
बाल-मैत्री की याद दिलाने,
भूले बिसरे वादे दोहराने
आस भरा मन ले।
आश्रय पानेे।
पर द्रुपद कृष्ण नहीं था,
जो मित्रता की लाज रखता,
सुदामा को गले लगाता,
उसकी आपबीती सुनता।
आँसू बहाता,बिन माँगे ही,
कुबेर का धन लुटाता।
यह था राजमद में डूबा,
पांचाल – नरेश,
बड़ी रूक्षता से उसने मुझे,
मैत्री का ,
व्यावहारिक पक्ष दिखाया।
अपने और मेरे बीच का ,
अंतर समझाया।
अपमान -गरल पी ,
दीन हीन याचक सा ,
प्रतिशोध-अनल में जलता मैं,
कृपाचार्य के पास,
हस्तिनापुर आया।
शायद उसी दिन ,
मेरे व्यक्तित्व का ,
कोमल पक्ष मर गया था।
महत्वाकांक्षा के दुर्गम
पर्वत- शिखर पर चढ़ना।
अब मात्र एक लक्ष्य,
बन गया था।
सौभाग्य से शीघ्र ही,
अवसर पाया।
अपनी धनुर्विद्या से
चमत्कृत कर ,
भोले कुरू राजकुमारों को
महत्वाकांक्षा ने मेरी
लक्ष्य-पथ पर ,
पहला कदम बढ़ाया
कुरूवंश गौरव
भीष्म ने मुझे ,
कुरू- कुल आचार्य के
महिम पद पर बैठाया।
पर रख न पाया मैं,
मर्यादा उस पद की,
गुरु तो बन गया,
पर आचरण में अपने,
गुरुता ला न पाया।
शिष्यों से किया पक्षपात,
वंचित रखा उन्हें ,
उस ज्ञान से,जो मैंने,
अपने पुत्र को सिखाया।
कर्ण का तिरस्कार किया,
एकलव्य को ठुकराया।
न केवल ठुकराया,
प्रत्युत्
मेरी प्रतिमा को
गुरू मानने वाले,
उस सहज गुरुभक्ति
श्रद्धा भाव भरे शिष्य
का सर्वस्व हर लिया।
गुरु-दक्षिणा का
अधिकारी न होते हुए भी
गुरु दक्षिणा के नाम पर,
उसके दाहिने हाथ का
अंगूठा कटवाया।
स्तब्ध रह गया ,
पल भर को वह।
पर मुझे उस पर
तरस तक न आया।
उसकी निपुणता,
दक्षता को उसकी
पल भर में ही ,
धूल में मिलाया।
पैशाचिक कर्म
मेरा यह मुझे
रसातल में गिरा गया।
सभी गुरुओं के माथे पर
कलंक अमिट लगा गया।
अर्जुन को बना मोहरा
अपने प्रतिकार का,
गुरु- दक्षिणा के नाम पर,
द्रुपद को परास्त करवाया।
भीषण अपमान का,
भीषण प्रतिकार लिया।
बंदी द्रुपद को देख ,
नतमस्तक निज चरणों में
अहंकार मेरा स्फीत हो गया
अंतस का रहा-सहा ,
मानवीय पक्ष भी,
पूर्णतः खो गया।
तभी तो स्वार्थी बना,
सत्ता के सामने झुकता रहा।
देखता रहा,
लाक्षा -गृह दहन,
द्यूतक्रीड़ा का षड्यंत्र,
धर्म का सर्वस्व हरण।
सुनता रहा,
अनुचित अधिकारों की माँग,
भरी सभा में ,
आत्मसम्मान की ,
गुहार लगाती,
द्रौपदी की कातर पुकार।
दुर्योधन ,दु:शासन का अट्टहास।
देखता रहा अपना मरण
प्रतिपल -प्रतिक्षण।
धिक्कारता रहा,
ऐसी राजभक्ति को,
जान बूझकर भी,
समझ न पाया।
विदुर की सद्नीतियों को।
श्रीकृष्ण की संधि-युक्ति को।
युद्ध में कुरूक्षेत्र के,
अधर्म का साथ दिया।
प्राणप्रिय पुत्रवत् शिष्यों पर,
प्रबल आघात किया।
चक्रव्यूह रचना की।
एक निरीह बालक की
हत्या के लिए ।
निहत्थे अभिमन्यु को
मारने वाले
नर पिशाचों का साथ दिया।
गाथा अनंत है ,
मेरे कुकर्मों की ।
थमने में नहीं आती है।
अनुचित को उचित,
कहने की पीड़ा अब,
सही नहीं जाती है।
और आज जब
मेरा अश्वत्थ,मेरा दुलारा।
युद्ध की बलिवेदी पर,
चढ़ गया है।
तो शस्त्रास्त्र त्याग,
बैठ गया हूँ मैं,
इस प्रलय की विभीषिका में।
देख रहा हूँ,
हाथ में नंगा खड्ग लिए
धृष्टद्युम्न को।
कुपित काल सम,
अपनी ओर बढ़ते,
जो सन्नद्ध है,
मेरे शिरोच्छेदन को।
सारथी मेरा भय कंपित,
बार -बार अनुरोध कर रहा,
उठिए आचार्य,शस्त्र धारिए।
अनर्थ को टालिए।
पुकार उसकी व्यर्थ है।
क्योंकि मेरी जिजीविषा
मर चुकी है,मैं तैयार हूँ,
मृत्यु के आलिंगन को।
“अश्वत्थामा हतो हत:
नरो वा कुंजरो वा”
का अर्धसत्य भी
मुझे अब पूरी तरह
ज्ञात हो चुका है।
सत्य वक्ता युधिष्ठिर का
यह मिथ्या भाषण,
मुझे पीड़ित कर रहा है।
पतन मूल्यों का डरपा रहा है
युद्ध का अभिशाप ,
प्रारंभ होने जा रहा है।
हाँ,एक बात है पूर्णतः सत्य।
मैं हूँ निर्भय,द्वंद्वों से परे।
शांत,निर्विकार।
जीवन की निरर्थकता का
यह अहसास,
मन में साहस भर रहा है।
जिंदगी न्याय तेरा,
मुझे स्वीकार है।
नियति तेरी हर इच्छा।
मैं जानता हूँ
कर्मों का भुगतान
इसी जन्म में,इसी लोक में,
करना पड़ता है।
मैं तैयार हूँ ,
इस भुगतान के लिए,
सहर्ष ,इसी पल।
काश!
मेरा यह पश्चाताप,
मेरे पापों का मार्जन कर सके।
गुरु -परंपरा में कोई,
दूसरा द्रोण न बन सके।
वीणा गुप्त
नई दिल्ली


