
वरिष्ठ कवयित्री/सेवानिवृत्त शिक्षिका डा. पूर्णिमा पाण्डेय ‘पूर्णा’ का ‘पूर्णिमांजलि’ और ‘पूर्णिमा भाव वीथिका’ के बाद बाल वाटिका पाठ को के बीच है। माना जाता है कि बच्चों के मनोभावों को पढ़ना इतना आसान नहीं होता अपेक्षाकृत बड़ों के।बतौर रचनाकार मेरा मानना है कि बढ़ो के लिए लिखना उतना कठिन नहीं जितना जी बच्चों के लिए शायद इसीलिए बच्चों के लिए बच्चों के लिए रचनाकारों की संख्या काफी कम है।
अपने पौत्री अन्वेशा (उर्वी) को भेंट करते हो डा. पूर्णा अपनी बात में मानती हैं कि कविताएं पढ़ने से बच्चों को धारा प्रवाह पढ़ने में मदद मिलती है, लत, ताल बद्ध कविता न केवल आसानी से याद हो जाती है, बल्कि बचपन की यह कविताएं जीवन भर आसानी से भूलती नहीं। यह बाल कविताएं बच्चों को भाषा सीखने का आनंद लेने के लिए प्रोत्साहित करेंगी। प्रस्तुत काव्य संग्रह की कविताएं 3 से 8 साल के बच्चों के लिए उपयोगी है।
59 कविताओं वाले 68 पृष्ठीय काव्य संग्रह का अवलोकन करने पर महसूस होता है कि कवयित्री ने अपने शिक्षकीय अनुभवों का पूरा उपयोग करते हुए बच्चों के मनोभावों को करीब से न केवल जाना समझा है, बल्कि शायद खुद बच्चों के स्थान पर रखकर शब्दों को उकेरने का सुंदर सार्थक प्रयास किया है।
रचनाओं के साथ शीर्षक के अनुरूप चित्रों का समायोजन बच्चों को आकर्षित करने की दिशा में उत्तम ही कहा जाएगा।
यदि रचनाओं पर दृष्टि डालते हैं तो पहली रचना ‘शारदे मां’ में कवयित्री प्रार्थना करती हैं –
हे शारदे मां हे शारदे मां
आशीष हमको दीजिए।
अज्ञान मिटाओ तिमिर का
मां शारदे दुख हर लीजिए।
घड़ी शीर्षक से रचना की दो पंक्तियां –
टिक टिक करती घड़ी
दिन रात है यह चलती।
बाल मनोविज्ञान को समझाते हुए माता -पिता की दो पंक्तियां बड़ी बात सरल सहज ढंग से कहती हैं –
बड़ा किया है इन्होंने हमको
इनकी सेवा करना मन से।
बच्चों की पसंद आइसक्रीम के बारे में डा. पूर्णा खुद बच्चा बनती लगती हैं, तभी तो वे कहती हैं –
स्वाद ले लेकर सब जन खाओ
अपने घर भी सबको खिलाओ।
जन्मदिन पर पेड़ लगाओ की सीख देते हुए कवयित्री लिखती है –
हरियाली से खुशहाली
मन को हरने वाली।
फुलवारी का शब्द चित्र खींचते हुए मोहक मुस्कान बिखेरती पंक्तियां –
मेरी प्यारी फुलवारी
महकती है अति प्यारी।
सीखो रचना में सरल सहज ढंग से सीख देते हुए बच्चों से सीधे जुड़ने के प्रयास जैसा है –
सही समय पर पढ़ना
सही समय पर खेलना।
संग्रह की अंतिम रचना में कवयित्री अपनी पौत्री के भावों को मात्र शब्द ही देती लगती हैं –
दादी की मैं उर्वी हूँ
पापा की मैं परी हूँ।
बाबा जी की बाबू जी हूँ
लगती उनको अच्छी हूँ।
अंत में इतना ही कहूंगा कि प्रस्तुत संग्रह बच्चों को खूब पसंद आयेगा और वे उत्साह से इसको पढ़ते हुए कंठस्थ कर सकते हैं। प्राथमिक विद्यालयों में संग्रह को समायोजित किया जाना चाहिए।
मुस्कान बिखेरती कवयित्री अपनी पौत्री के साथ मुखपृष्ठ आकर्षक और बच्चों के लिए आकर्षण का केंद्र बनने को उद्धृत है। मुखपृष्ठ की चार पंक्तियां….
विविध रंग कुसुमों की माला।
सजी धजी यह कविता बाला।।
खिली सुगंधित महक रही है।
बाल वाटिका पुस्तक माला।।
…..संग्रह के सार जैसा लगता है।
लोकरंजन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित मात्र ₹100/- मूल्य वाली बाल वाटिका बच्चों के मन- मस्तिष्क में जाने में समर्थ है। प्रस्तुत संग्रह की सफलता और डा. पूर्णा के अभीष्ट सिद्धि प्रयास की बधाइयां शुभकामनाएं सहित उनके सुखद जीवन की कामना के साथ……।
गोण्डा, उत्तर प्रदेश




