आलेख

रूह की आवाज

योगेश गहतोड़ी "यश"

मनुष्य का जीवन केवल बाहरी अनुभवों का संग्रह नहीं है, बल्कि भीतर घटने वाली एक अनंत यात्रा है। इस यात्रा में जब व्यक्ति केवल दुनिया को देखने के बजाय स्वयं को देखना शुरू करता है, तब उसके भीतर एक मौन स्वर उभरता है, यही *रूह की आवाज़* है। यह आवाज़ विचारों की नहीं, अनुभूति की है; यह तर्क नहीं, सत्य का आह्वान है; यह दुनिया से नहीं, अस्तित्व की गहराइयों से आती है। जीवन की गति, लक्ष्य, संबंध, उपलब्धियाँ और संघर्ष, यह सब कुछ तभी अर्थ पाते हैं, जब हम उस आवाज़ को पहचान लेते हैं, जो शब्दों के बिना मार्ग दिखाती है और मौन में दिशा देती है। वेद, उपनिषद और गीता उस आवाज़ को आत्मा, चैतन्य, प्रकाश, ब्रह्म के नाम से पुकारते हैं और कहते हैं कि *“जिसने स्वयं को सुन लिया, उसे जगत सुनाना नहीं पड़ता।”* मेरे द्वारा लिखित यह आलेख उसी मौन सत्य की खोज है, जो हमारे भीतर जन्म से विद्यमान है, परंतु अनुभव में तब आता है, जब मन शांत और चेतना जागृत होती है।

*1. रूह का अस्तित्व क्या है?*
मनुष्य केवल शरीर या विचार नहीं है, बल्कि चेतना का बोध है, जिसे रूह कहा जाता है। शरीर समय से बंधा है, पर आत्मा समय से परे है। यह अनुभव करने में आती है, दिखाई नहीं देती। रूह वह ऊर्जा है, जो जीवन को दिशा देती है, और मृत्यु के बाद भी अस्तित्व में रहती है। वेदों ने इसे अमर तत्व कहा है। बृहदारण्यक उपनिषद कहता है— *“अंतर्यामी आत्मा”,* अर्थात् आत्मा भीतर से सबका संचालन करती है। रूह जन्म नहीं लेती और न ही नष्ट होती है; वह केवल शरीर बदलती है जैसे कोई वस्त्र बदलता है। जब व्यक्ति समझता है कि वह शरीर नहीं, बल्कि आत्मा है, तभी उसके भीतर जागृति होती है और वह जीवन को एक गहन दृष्टि से देखना शुरू करता है।

*2. आत्मा और मन का अंतर*
मन और रूह दोनों हमारे भीतर हैं, लेकिन उनका स्वभाव अलग है। मन विचारों, भावनाओं, भय और इच्छाओं से भरा होता है; वह निरंतर सक्रिय और अशांत रहता है। जबकि आत्मा में स्थिरता, शांति और सत्य है। मन भविष्य और अतीत में भटकता है, पर आत्मा वर्तमान में स्थित रहती है। यही कारण है कि आत्मा की आवाज़ सुनने के लिए पहले मन को शांत करना पड़ता है। मन तुलना करता है, आत्मा स्वीकार करती है। मन भ्रम पैदा करता है, आत्मा दिशा देती है। गीता के अनुसार — *“आत्मानं रथिनं विद्धि”*, अर्थात् शरीर रथ है, मन लगाम है और आत्मा उसका स्वामी है। जब मन आत्मा के मार्गदर्शन में चलता है, तब जीवन सुंदर, शांति पूर्ण और सार्थक हो जाता है।

*3. आत्मा की आवाज़ कैसी होती है?*
आत्मा शब्दों में नहीं बोलती, बल्कि अनुभूति में बोलती है। यह आवाज़ विचार नहीं, बल्कि अंतःज्ञान (Intuition) के रूप में प्रकट होती है। जब कोई निर्णय आत्मा से होता है तो परिणाम चाहे कुछ भी हो, भीतर शांति होती है और जब निर्णय भय, क्रोध या लालसा से लिया जाता है, तो अंदर बेचैनी रहती है। आत्मा की आवाज़ धीमी पर निश्चित होती है। वह आदेश नहीं देती, मार्ग दिखाती है। ऋषियों ने कहा है — *“यतो वाचो निवर्तन्ते”,* जहाँ शब्द समाप्त होते हैं, वहाँ आत्मा बोलती है। इसलिए यह अनुभव की भाषा है, शब्दों की नहीं। आत्मा का स्वर सत्य, करुणा और निर्भीकता से भरा होता है।

*4. आत्मा क्यों मौन में बोलती है?*
आत्मा मौन की भाषा बोलती है क्योंकि सत्य शोर में नहीं, शांति में जन्म लेता है। बाहरी संसार विचारों का, अपेक्षाओं का, परिस्थितियों का बहुत शोर करता है, पर भीतर की दुनिया धैर्य और मौन से संचालित होती है। जब मन शांत होता है, सांस गहरी होती है और विचारों का प्रवाह धीमा हो जाता है, तभी आत्मा अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती है। ऋग्वेद कहता है— *“मौनं सर्वार्थ साधनम्”*, अर्थात मौन सभी उपलब्धियों का साधन है। मौन मन को आत्मा के स्तर तक ले आता है, जहाँ सत्य स्पष्ट होता है। मौन केवल चुप रहने का नाम नहीं, बल्कि भीतर स्थिर रहने की अवस्था है।

*5. आत्मा और सत्य का संबंध*
आत्मा सत्य से बनी है, इसलिए झूठ कभी आत्मा के साथ नहीं टिक सकता। जब हम अपने सत्य से दूर जाते हैं, आत्मा असहजता पैदा करती है। जब हम सत्य के विरुद्ध निर्णय लेते हैं, आत्मा बेचैनी से संकेत देती है और जब हम सत्य के साथ चलते हैं, तब आत्मा आनंद और शांति देती है। गीता में लिखा है — *“धर्मो रक्षति रक्षितः”* जो सत्य की रक्षा करता है, सत्य उसकी रक्षा करता है। आत्मा हमें वही दिशा देती है जो हमारे जीवन के उद्देश्य से जुड़ी होती है। सत्य आत्मा का स्वभाव है और अहिंसा उसका व्यवहार। यही कारण है कि जो लोग आत्मा के अनुरूप जीवन जीते हैं, उनके शब्द कम और प्रभाव अधिक होता है।

*6. आत्मा और दर्द का रहस्य*
दर्द आत्मा की भाषा में एक संदेश है। जब व्यक्ति गलत लोगों के साथ होता है, गलत निर्णय लेता है या अपने जीवन उद्देश्य से भटक जाता है। आत्मा संकेत देती है। यह संकेत कभी बेचैनी के रूप में, कभी खालीपन के रूप में और कभी गहरी चुप चेतावनी के रूप में आता है। दर्द दंड नहीं, बल्कि दर्पण है, जो दिखाता है कि कुछ बदलना होगा। ईशोपनिषद कहता है— *“ईशावास्यमिदं सर्वम्”*, अर्थात हर अनुभव में परमात्मा का संकेत है। इसलिए दर्द वह स्थान है, जहाँ आत्मा हमारे विकास के लिए रास्ता दिखाती है।

*7. आत्मा और प्रेम की शक्ति*
रूह का स्वभाव प्रेम है—सफलता, प्रशंसा या अहंकार नहीं। सच्चा प्रेम शांति देता है, स्वामित्व नहीं करता। आत्मा का प्रेम किसी व्यक्ति तक सीमित नहीं होता, बल्कि वह पूरे अस्तित्व को समेटता है। शिवसूत्र कहता है— *“चित्तं आत्मा”* जब चित्त शुद्ध होता है, तब आत्मा प्रेम बनकर प्रकट होती है। यही प्रेम करुणा, सहानुभूति, क्षमा और समझ के रूप में जीवन में उतरता है। जब व्यक्ति आत्मा के स्तर से प्रेम करता है, तब उसमें अपेक्षा नहीं होती केवल उपस्थिति होती है।

*8. आत्मा का मार्गदर्शन कैसे मिलता है?*
आत्मा का मार्गदर्शन पाने के लिए साधना आवश्यक है। साधना का अर्थ मंदिर जाना नहीं, बल्कि स्वयं के भीतर उतरना है। रोज़ कुछ समय सांस को महसूस करना, कुछ समय मौन में रहना और कुछ पल स्वयं से प्रश्न करना, यही साधना है। पतंजलि योगसूत्र कहता है— *“अभ्यासेन वैराग्येण”* लगातार अभ्यास और आसक्ति से मुक्त मन आत्मा को प्रकट करता है। जब व्यक्ति धीरे-धीरे बाहरी दुनिया से ध्यान हटाकर भीतर की ओर ध्यान लगाता है, तब रूह अपनी उपस्थिति दिखाना शुरू करती है।

*9. आत्मा की आवाज़ सुनने के अभ्यास*
रूह की आवाज़ सुनने के लिए कुछ सरल अभ्यास हैं। धीरे सांस लेना और महसूस करना कि *”मैं हूँ”।* अपने विचारों को देखना लेकिन उनमें खो न जाना। अपनी भावनाओं को सुनना पर उनके अनुसार चलना नहीं। प्रकृति के साथ कुछ पल बिताना और मौन को स्वीकार करना। दिन में कुछ पल स्वयं का निरीक्षण करना चाहिए और अपने से पूछो— *क्या मैं अपने सत्य के साथ हूँ?* मांडूक्य उपनिषद कहता है— *“अयमात्मा ब्रह्म”* आत्मा ही ब्रह्म है। जब व्यक्ति आत्मा की ध्वनि से जुड़ता है, तब वह ब्रह्म के मार्ग से जुड़ जाता है।

*10. आत्मा से जीना कैसा होता है?*
जब व्यक्ति आत्मा के अनुसार जीवन जीने लगता है, तब जीवन संघर्ष नहीं बल्कि प्रवाह बन जाता है। निर्णय सरल हो जाते हैं, मन हल्का हो जाता है और संबंध स्वाभाविक हो जाते हैं। वह दूसरों को बदलने की कोशिश नहीं करता, बल्कि उन्हें आत्मा की दृष्टि से स्वीकार करता है। वह हर घटना में अर्थ और हर व्यक्ति में प्रकाश देखता है। तब जीवन बाहरी उपलब्धियों में नहीं, बल्कि आंतरिक अनुभवों में मापा जाता है। बृहदारण्यक उपनिषद कहता है— *“आत्मा आनंद है”* और यही आनंद आत्मा-समर्पित जीवन का फल है।

*11. आत्मा और स्वतंत्रता*
आत्मा की आवाज़ सुनने वाला व्यक्ति बाहरी मान्यता या स्वीकृति पर निर्भर नहीं रहता। उसकी पहचान स्थिर हो जाती है क्योंकि अब वह स्वयं को जान चुका होता है। जब व्यक्ति अपनी आत्मा के साथ होता है, तब उसे भय नहीं होता क्योंकि आत्मा अमर है। उसने उम्मीद नहीं, विश्वास सीख लिया होता है। वह क्रोध नहीं, समझ से चलता है। वह परिस्थितियों को नियंत्रित नहीं करता, बल्कि उन्हें स्वीकार करना जानता है। यही वास्तविक स्वतंत्रता है, जहाँ जीवित रहना संघर्ष नहीं, बल्कि सत्य की सतत अनुभूति बन जाता है।

*12. अंतिम सत्य — आत्मा याद दिलाती है*
अंत में आत्मा केवल एक संदेश देती है कि *“तुम वही हो जिसे तुम खोज रहे हो।”* तुम यह नाम, यह शरीर, यह इतिहास नहीं हो। तुम उस शक्ति के अंश हो जिससे सृष्टि बनी है और उसी से तुम्हारा मार्ग तय होता है। इसलिए रूह की आवाज़ केवल दिशा नहीं, बल्कि जागरण है। उसी जागरण के लिए अंतिम वेद मंत्र कहता है—
*ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम्, पूर्णात् पूर्णमुदच्यते,*
*पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते।*
अर्थात तुम पूर्ण हो, तुम प्रकाश हो, तुम वही हो जो कभी समाप्त नहीं होता।

अत: *रूह की आवाज़ जीवन* का वह मौन सत्य है जो हमें बाहरी भ्रमों से हटाकर हमारे वास्तविक स्वरूप तक ले जाता है। यह आवाज़ विचारों की गति में नहीं, बल्कि स्थिरता और मौन की अनुभूति में सुनाई देती है। जब व्यक्ति मन, भय और इच्छाओं के शोर से बाहर निकलकर स्वयं के भीतर उतरता है, तब वह समझता है कि उसका अस्तित्व केवल नश्वर शरीर नहीं, बल्कि अनंत चेतना है। इसी सत्य की पुष्टि ऋग्वेद में की गई है: *“ऋतं च सत्यं च अभिद्धात्”* सत्य और ब्रह्म एक ही हैं। *रूह की आवाज़* हमें भीतर से मार्ग देती है, इसलिए जब निर्णय इस आवाज़ के अनुरूप होते हैं, तब भीतर बिना कारण शांति उत्पन्न होती है और जब इसके विरुद्ध चलते हैं, तब बेचैनी जन्म लेती है। यह चेतना हमें निरंतर याद दिलाती है कि हमारा उद्देश्य केवल जीवन जीना नहीं, बल्कि स्वयं को जानना है। इसी भाव को कठोपनिषद कहता है: *“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत”* उठो, जागो और सत्य को जानो और जब यह जागरण होता है, तब मनुष्य समझता है कि वही प्रकाश है, वही साक्षी है, वही वह शाश्वत अस्तित्व है जिसके बारे में यजुर्वेद कहता है: *“अहं आत्मा गुडाकेश”* मैं ही वह आत्मा हूँ, जो कभी नहीं मिटती। इसलिए निष्कर्ष यही है कि *रूह की आवाज़* सुनना ही आत्मबोध, शांति और जीवन का परम अर्थ है।

✍️ योगेश गहतोड़ी “यश”
मोबाईल: 9810092532
नई दिल्ली – 110059

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