
वो, साँझ का ढ़लना बड़ा सुहाना लगता है
वो,सुनहरी आभा से धरा का नहाना,
जाते हुए रेवड़ का धूल का उड़ाना,
और पीछे छोड़ जाना एक अमिट मौन,
सन्नाटा……
और धूल से धूमिल कदमों के निशान,
वो, साँझ का ढ़लना बड़ा सुहाना लगता है,
वहीं…….,
वो दूर जाते रेवड़ों के संग संग
साथ में चलता हुआ चरवाहा,
ढलती सुनहरी आभा में
परछाई बन आपस में विलीन होती हुई,
इस साँझ में बड़ा सुहाना लगता है…,
वो, साँझ का ढ़लना बड़ा सुहाना लगता है ||
शशि कांत श्रीवास्तव
डेराबस्सी मोहाली, पंजाब




