
भारत की संत परंपरा का इतिहास यह बताता है कि जब जीवन में दुख और वियोग मनुष्य को झकझोरते हैं,तब वही क्षण उसे ईश्वर के समीप ले जाता है।
ऐसे ही एक संत महापुरुष थे–संत बनादास जी महाराज जिन्होंने साँसारिक जीवन के संघर्षों से उठकर अध्यात्म का अमर दीप प्रज्वलित किया।
१-जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि——
संत बनादास जी का जन्म १८२१ में उत्तरप्रदेश के गोंडा के समीप ग्राम अशोकपुर में एक क्षत्रिय बैस परिवार में हुआ था।आपके पिता का नाम गुरुदत्त सिंह था।घर का वातावरण धार्मिक और संस्कारवान था। परंतु परिवार की आर्थिक स्थिति साधारण थी। बाल्यावस्था से ही उनमें भक्ति,सेवा और अध्ययन के प्रति गहरा रुझान था।
२-जीवन का प्रथम अध्याय——-
फ़ौज की सेवा–
युवावस्था में बनादास जी ने भिनगा राज्य (बहराइच) की सेना में नौकरी कर ली यह उनके जीवन का वह दौर था, जब वे कर्तव्य और अनुशासन के मार्ग पर अग्रसर थे।उन्होंने ईमानदारी और निष्ठा से अपनी सेवा की। परंतु भीतर कहीं ईश्वरभक्ति की लौ सदैव प्रज्वलित होती रही।उनके समकालीन के अनुसार वे फौजी जीवन के बीच भी सायंकालीन समय में ‘राम नाम’ का जप करते और साधुसंतों का आदर करते थे।
३-पुत्रवियोग जीवन का निर्णायक मोड़——
जीवन ने एक दिन ऐसा दुःखद मोड़ लिया जिसने उनकी दिशा ही बदल दी। उनके एकमात्र 12 वर्षीय पुत्र का असमय निधन हो गया।यह घटना उनके लिए अत्यंत पीड़ादायक थी।एक पिता के रूप में यह वियोग असहनीय था,परंतु इसी दुख ने उनके भीतर के साधक को जाग्रत किया उन्होंने कहा-
जिससे प्रेम किया,वही ईश्वर बन गया
और जिसे खोया,उसी में प्रभु पा लिया
इसी क्षण ने उन्हें संसार की नश्वरता का बोध कराया।उन्होंने तय किया अब शेष जीवन सांसारिक नहीं आध्यात्मिक साधना को समर्पित रहेगा।
४-वैराग्य और आयोध्या धाम की यात्रा——
पुत्र वियोग के पश्चात संत बनादास जी ने सम्पूर्ण साँसारिक मोह छोड़ दिया, उन्होंने अपने घरवार को त्याग कर वैरागी सन्यास का मार्ग अपनाया और अयोध्या धाम में रामघाट के निकट एक झोपड़ी बनाई और उसी साधना स्थली में तपस्या में लीन हो गए। आगे चलकर यही झोपड़ी*भवहरण कुंज* के नाम से प्रसिद्ध हुई।
यहीं उन्होंने जीवन के शेष वर्ष साधना, सेवा, ध्यान, वेदांत, साहित्य और लेखन में बिताये। उनका जीवन एक शांत झरने की तरह बहने लगा, न दिखावा,न प्रचार केवल भक्ति,ज्ञान और मानवता की सुगंध–
५-लेखन,साधना और साहित्यिक योगदान——
संत बनादास महाराज केवल महान साधक ही नहीं असाधारण साहित्यकार संत भी थे।उन्होंने 64 ग्रंथों की रचना की जिनमें गहन, दर्शन,वेदांत भक्ति और जीवन नीति का समन्वय है। उनके प्रमुख ग्रंथों में–
१-अर्जपत्रिका
२-नाम निरूपण
३-विवेक मुक्तावलि
४-प्रेमपथ-प्रदीप
५-रामपंचांग
६-भक्तिसार
उनका लेखन सरल,भावपूर्ण और आत्मानुभूति से भरा था।व्रज,अवधी, और खड़ी बोली का सुंदर मेल था। वे कहते थे—
साहित्य वह नहीं जो शब्दों से सजे
साहित्य वह है जो आत्मा को छू ले
उनकी वाणी में प्रेम का माधुर्य,ज्ञान का प्रवाह और भक्ति की सरसता साथ साथ प्रवाहित होती थी।
६-धर्म और समाजसेवा की दृष्टि——
संत बनादास जी का धर्म दर्शन,लोक वव्यहार से जुड़ाव था वे कहते थे–
धर्म का मूल्य मंदिर में नहीं, मनुष्य के व्यवहार में है
उन्होंने जातिभेद,अंधविश्वास और दिखावे का विरोध किया था,उनका संदेश था।
सेवा ही सच्ची पूजा है
वे अक्सर अपने शिष्यों से कहते थे—-
जो भूखे को भोजन दे मानो वह आरती कर रहा है।
जो दुखी को सहारा दे मानो वो ध्यान में लीन है
७-समर्पण मौन और अंतकाल——-
जीवन के उतरार्द्ध में संत बनादास जी मौनावास में रहने लगे कहा जाता है कि अंतिम समय में उन्होंने केवल इतना कहा।
अब वही सब हैं, में कुछ नहीं
यह वाक्य उनके जीवन सार के पूर्ण समर्पण और अहंकार का विसर्जन का प्रतीक था।
८-संत बनादास जी की आज प्रासांगिकता—–
आज जब मनुष्य टूट जाता है तो दुख और वियोग में खो जाता है।संत बनादास जी का जीवन यह संदेश देता है कि वियोग को भी योग में बदला जा सकता है।
जिसे सँसार का अंत लगा वही ईश्वर की ओर पहला कदम था
उनका जीवन संदेश देता है कि कर्तव्य,दुख और वैराग्य तीनों मिलकर जीवन को पूर्ण बना सकते हैं।
९-समापन——–
संत बनादास जी का जीवन एक पूर्ण चक्र है,
कर्तव्य से प्रारंभ,वियोग से जागरण और साधना से मोक्ष तक।
उनकी वाणी प्रेरित करती है कि–
प्रेम की राह कठिन सही पर वही सत्य की राह है जो उसे पा ले वही धन्य है।
आइये उनके पदचिन्हों पर चलकर सेवा में भक्ति,साधना में प्रेम और जीवन में सत्य का दीप प्रज्वलित करें यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
संत बनादास जी महाराज अमर रहें उनके जीवन का प्रकाश युग युग तक मानवता को आलोकित करता रहे।
ॐ शांति शांति शांति
अनिलश्रीवस्तव ‘राही’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
9425407523


