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तार्किकता, स्वतंत्रता और मानवता : एक दार्शनिक विश्लेषण

आचार्य शीलक राम

वर्तमान युग में विज्ञान, धर्म और राजनीति—तीनों ही क्षेत्रों में तर्क और न्याय की भावना क्षीण होती जा रही है। परिणामस्वरूप मानवता अंधभक्ति, भ्रम और मानसिक गुलामी के दलदल में फँसती जा रही है। यह लेख इस विचार पर केंद्रित है कि सच्ची स्वतंत्रता किसी बाहरी व्यवस्था से नहीं, बल्कि अंतःचेतना की तार्किकता और न्यायबुद्धि से उत्पन्न होती है। जब समाज में तर्कयुक्ति, कारणकार्य और दर्शन का प्रसार होता है, तब ही मानवता स्वतंत्रता का वास्तविक स्वाद चखती है।

प्रत्येक विषय में कुछ न कुछ तार्किकता निहित रहती है। किंतु जब समाज में मूर्खता, अंधश्रद्धा और विचारहीनता का प्रसार होता है, तब वही तार्किकता लुप्तावस्था में चली जाती है। आज का युग उसी मानसिक गुलामी का साक्षी है। नेता, अधिकारी, धर्माचार्य और वैज्ञानिक—जो भी सत्ता-संरचना का संचालन करते हैं—वे अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए जनमानस को तार्किक होने नहीं देते। जब जनता तर्कशील होती है, तब शोषण का तंत्र स्वतः उजागर हो जाता है। इसीलिए इतिहास में जब-जब सत्ता को खतरा महसूस हुआ है, उसका पहला आक्रमण दर्शनशास्त्र और तर्कशास्त्र पर हुआ है।

तार्किकता हर व्यक्ति में किसी न किसी रूप में विद्यमान होती है, किंतु उसका विकास ही उसे स्वतंत्र बनाता है। जब समाज में तर्कयुक्ति और कारणकार्य की समझ बढ़ती है, तो मानवता स्वतंत्रता का स्वाद चखने लगती है; और जब मूर्खता तथा अंधभक्ति का बहुमत बढ़ता है, तब मानवता परतंत्र हो जाती है। इस प्रकार स्वतंत्रता और परतंत्रता की सच्ची परिभाषा मानसिक अवस्था में निहित है — सोचने, समझने और विवेकपूर्वक निर्णय लेने की क्षमता ही वास्तविक स्वतंत्रता है।

सत्ता-संचालित व्यवस्था का स्वभाव अपनी स्थिरता बनाए रखना है, भले ही उसके लिए जनता को भ्रमित रखना पड़े। नेता अपने राजनीतिक हितों के लिए, धर्माचार्य अपने मत के विस्तार के लिए, और वैज्ञानिक अपने उद्योगिक हितों के लिए जनमानस को अंधश्रद्धा में बनाए रखना चाहते हैं। यदि जनता तार्किक बन जाए, तो इन सभी के स्वार्थ उजागर हो जाएंगे। इसलिए यह वर्ग जनमानस से तर्क को दूर रखता है, और उसकी जगह भय, चमत्कार और अंधभक्ति स्थापित करता है।

इतिहास साक्षी है कि जब-जब स्वतंत्र चिंतन और न्यायप्रियता का उदय हुआ है, सत्ता ने सबसे पहले दर्शनशास्त्र, न्यायशास्त्र और तर्कशास्त्र को हाशिए पर धकेला है। भारतभूमि पर आन्वीक्षिकी, तत्वशास्त्र, न्यायशास्त्र और वाक्यशास्त्र जैसी विद्या परंपराएँ इसी कारण लुप्त हुईं, क्योंकि वे मनुष्य को प्रश्न करना सिखाती थीं। प्रश्न करना ही स्वतंत्रता का प्रथम चरण है — और यही बात सत्ता को असहज करती है।

अमेरिकी चिकित्सक डॉ. केसी मींस के अनुसार, आधुनिक चिकित्सा प्रणाली रोग की जड़ तक नहीं पहुँचती, केवल लक्षणों की चिकित्सा करती है। उनकी पुस्तक “Good गुड इंज्री” में यह कहा गया है कि असली स्वास्थ्य जीवनशैली में परिवर्तन से आता है — सात्विक भोजन, योग, व्यायाम, पर्याप्त नींद और मानसिक शुद्धता ही वास्तविक औषधियाँ हैं। आधुनिक चिकित्सा-प्रणाली रोगी की नहीं, बल्कि औद्योगिक हितों की सेवा करती है। यदि जनता में तार्किकता और कारणकार्य की समझ विकसित हो, तो इस शोषणकारी तंत्र को पहचानना कठिन नहीं। किंतु यही वह बिंदु है, जहाँ जनता को सोचने नहीं दिया जाता।

श्रद्धा और तार्किकता में विरोध नहीं, बल्कि संतुलन आवश्यक है। श्रद्धा बिना तर्क के अंधभक्ति बन जाती है, और तर्क बिना श्रद्धा के कठोर बुद्धिवाद। सत्ता-संरचनाएँ जनता से संतुलित श्रद्धा छीनकर अंधभक्ति सिखाती हैं, क्योंकि अंधभक्त प्रश्न नहीं करता। प्रश्न न करने वाला समाज धीरे-धीरे गुलामी को ही स्वाभाविक मानने लगता है।

दर्शनशास्त्र का उद्देश्य केवल बौद्धिक व्यायाम नहीं, बल्कि जीवन का मार्गदर्शन है। यह मनुष्य को न्याय, कारणकार्य, तर्कयुक्ति और विवेक की दृष्टि प्रदान करता है। जब यह दृष्टि समाज से हट जाती है, तब विज्ञान शोषण का उपकरण, धर्म व्यवसाय का माध्यम और राजनीति छल का खेल बन जाती है। अतः दर्शन को जीवन में स्थान देना ही स्वतंत्रता की रक्षा का सबसे प्रभावी उपाय है।

मानवता की स्वतंत्रता किसी संविधान या शासन से नहीं, बल्कि विचार और तर्क की स्वतंत्रता से सुनिश्चित होती है। जब समाज में न्याय, तर्कयुक्ति, कारणकार्य और दर्शन का प्रभाव बढ़ेगा, तब मानवता स्वाभाविक रूप से स्वतंत्र होगी। आज आवश्यकता है कि हम पुनः तर्क, विवेक और न्याय को अपने जीवन का अंग बनाएं, ताकि किसी भी प्रणाली, मत या संस्था के अंधानुकरण से बच सकें।
> “तार्किकता ही स्वतंत्रता का स्वर है, और अंधभक्ति ही परतंत्रता का प्रतीक।”
— आचार्य शीलक राम
निष्कर्ष : यह लेख मानवता को स्मरण कराता है कि सच्ची मुक्ति बाहरी नहीं, आंतरिक है। यह किसी शासन या कानून से नहीं, बल्कि चेतना की स्वतंत्रता से प्राप्त होती है। समाज तभी स्वतंत्र कहलाएगा जब उसका प्रत्येक नागरिक तर्कशील, न्यायप्रिय और विवेकवान होगा। दर्शन का पुनर्जागरण ही मानवता की मुक्ति का मार्ग है।
आचार्य शीलक राम
(दार्शनिक, विचारक एवं समाजचिंतक)
वैदिक योगशाला
कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

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