
हो चला वक्त सूरज के ढलने का
आभा सिंदूरी सी हो गई है,
अवसान दिवस का हो चला है
सांझ की बेला आ रही धरा पर,
धीरे.. धीरे….,
वहीं लालिमा समा रही है
धीरे धीरे निशा के अंक में,
वहीं…..,
परिंदे भी चल पड़े -नीड़ को,
हो चला है वक्त सूरज के ढलने का,
तुम सांझ ढ़ले चले आना…|
वक्त कभी रहता नहीं समान
जाने कब क्या हो, पता नहीं,
मन बेचैन बड़ा हो जाता है
प्रिये….,
तुम सांझ ढ़ले घर आ जाना,
प्रिये ,तुम सांझ ढ़ले चले आना ||
शशि कांत श्रीवास्तव
डेराबस्सी मोहाली, पंजाब



