आलेख

वन्दे मातरम् :चेतना का नवजागरण

डॉ.उदयराज मिश्र,शिक्षाविद

भारत एक बहुधर्मी और बहु भाषा देश है,जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अनुसार उपासना,साधना और वक्तव्य की खुली आजादी है किंतु ध्यातव्य है कि जिस देश में लोगों के हाथ राष्ट्र वंदना,मातृवंदना के निमित्त नहीं उठते उनकी व्यक्तिगत आराधना के मार्ग भी बहुत दिनों तक अस्तित्व में नहीं रहते।इस निमित्त और प्रयोजनार्थ ब्रिटिशों के चंगुल से खंड खंड में बंटे भारत को पुनः एकता के सूत्र में पिरोने हेतु वंदेमातरम का योगदान अद्वितीय है।कदाचित यही कारण है कि उत्तर प्रदेश शासन, माध्यमिक शिक्षा विभाग, लखनऊ द्वारा हाल ही में जारी आदेश दिनांक – 01 नवम्बर 2025 के अंतर्गत यह निर्देश दिया गया है कि राज्य के समस्त सरकारी, सहायता प्राप्त एवं निजी विद्यालयों में प्रतिदिन प्रार्थना सभा के दौरान “वन्दे मातरम्” का सामूहिक गायन एक वर्ष तक अनिवार्य रूप से कराया जाए।शासन का यह निर्णय केवल एक प्रशासनिक पहल नहीं, बल्कि राष्ट्रभक्ति, सांस्कृतिक अस्मिता और संवैधानिक गौरव के पुनर्संवर्धन की दिशा में एक प्रेरणादायी कदम है। विद्यालय, जहाँ राष्ट्र की भावी पीढ़ी का निर्माण होता है, वहाँ मातृभूमि की वंदना से दिन का आरम्भ होना निःसंदेह राष्ट्रगौरव का प्रतीक है।
वन्दे मातरम् :ऐतिहासिक प्रेरणा
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“वन्दे मातरम्” का सृजन महर्षि बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने सन् 1875 ई. में किया था और यह उनके प्रसिद्ध उपन्यास “आनन्दमठ” में सन् 1882 ई. में प्रकाशित हुआ।इसकी प्रथम पंक्तियाँ—
“वन्दे मातरम्, सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्।”
(आनन्दमठ, 1882)
भारतीय मातृभूमि की सौंदर्य, समृद्धि और शीतलता से ओतप्रोत छवि प्रस्तुत करती हैं।
स्वतंत्रता आंदोलन के काल में “वन्दे मातरम्” क्रांति का मंत्र बन गया।1905 के बंग-भंग आंदोलन में यह गीत जन-जन के होंठों पर गूंजा और स्वतंत्रता सेनानियों के लिए आत्मिक प्रेरणा का स्रोत बना।नेताजी सुभाषचंद्र बोस, श्रीअरविन्द घोष, लाला लाजपत राय, भगतसिंह और अनेक क्रांतिकारियों ने इसे राष्ट्र की चेतना का प्रतीक माना।

विद्यालयों में अनिवार्य गायन का औचित्य
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विद्यालय राष्ट्रनिर्माण के प्रथम संस्कार केंद्र हैं।
जहाँ बच्चों को केवल विषयज्ञान ही नहीं, बल्कि चरित्र, अनुशासन और देशभक्ति का संस्कार भी दिया जाता है।“वन्दे मातरम्” का प्रतिदिन सामूहिक गायन विद्यार्थियों के हृदय में मातृभूमि के प्रति श्रद्धा, सामूहिकता और राष्ट्रनिष्ठा का भाव जगाता है।
बालक जब यह पंक्ति गाता है—
“त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी, कमला कमलदलविहारिणी।”
तो वह मातृभूमि की शक्ति, समृद्धि और करुणा तीनों का साक्षात्कार करता है।यह गायन सांस्कृतिक गौरव और राष्ट्रीय एकता का जीवंत प्रतीक बनता है।

राष्ट्रगान और राष्ट्रीय गीत : तुलनात्मक दृष्टि
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भारत सरकार ने 24 जनवरी 1950 को यह निर्णय लिया कि
“जन गण मन” को राष्ट्रगान और“वन्दे मातरम्” को राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया जाएगा।दोनों गीत राष्ट्र के अभिन्न अंग हैं, किंतु उनके स्वर-भाव में सूक्ष्म अंतर है।
“वन्दे मातरम्” भारतीयता की भावनात्मक जड़ें प्रकट करता है, जबकि “जन गण मन” संविधानिक और राजनैतिक एकता का औपचारिक प्रतीक है।दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं—एक राष्ट्र की आत्मा है, दूसरा उसका अनुशासित शरीर।

संवैधानिक और सांस्कृतिक औचित्य
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संविधान सभा की बहसों में “वन्दे मातरम्” के ऐतिहासिक महत्व को मान्यता देते हुए यह कहा गया कि इस गीत ने स्वतंत्रता संग्राम को दिशा और बल दोनों दिया।
अतः विद्यालयों में इसका गायन संवैधानिक भावना और सांस्कृतिक परंपरा के अनुरूप है।
उत्तर प्रदेश सरकार का निर्णय इस परंपरा को पुनर्जीवित करता है और यह स्मरण कराता है कि राष्ट्र का सम्मान केवल शब्दों में नहीं, सामूहिक संकल्प में निहित है।

मातृभूमि की वंदना ही सच्चा राष्ट्रधर्म
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विद्यालयों में “वन्दे मातरम्” का अनिवार्य गायन केवल एक आदेश नहीं, बल्कि राष्ट्रीय साधना का आरम्भ है।
यह विद्यार्थियों के भीतर गौरव, अनुशासन, समरसता और मातृभूमि-प्रेम के बीज बोता है।
जब नई पीढ़ी प्रतिदिन “वन्दे मातरम्” के स्वर में अपनी आस्था व्यक्त करेगी, तब वह गीत नहीं, भारत की आत्मा का नाद होगा।
“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।”
(रामायण – उत्तरकाण्ड)

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है —विद्यालयों में “वन्दे मातरम्” का अनिवार्य गायन न केवल अनुशासन और देशभक्ति का प्रतीक है, बल्कि यह नई पीढ़ी में राष्ट्र के प्रति समर्पण, संस्कृति के प्रति गौरव और संविधान के प्रति श्रद्धा का अमिट संस्कार रोपित करेगा।
यह निर्णय उस आत्मा को पुनर्जीवित करेगा जिसने भारत को वसुधैव कुटुम्बकम् का संदेश देने योग्य बनाया।

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