
चिंतनीय है सोचनीय है अपनों में एतबार नहीं क्यों?
चाचा को भी अपना समझें ऐसे भी परिवार नहीं क्यों?
घर भीतर की उठापटक ने घर का सत्यानाश किया।
आये दिन हो कपरफुटव्वल रात ढले उपवास किया।।
अब तो भाई को भाई की-किंचित भी दरकार नहीं क्यों?
बेमतलब की तनातनी का होता है प्रतिकार नहीं क्यों?
हस्तक्षेप घरों में प्रतिपल सरहज साला साली का।
सासू साढू और ससुर जी सचिव बने घरवाली का।।
तूं तूं मैं मैं होने पर चुप करने का अधिकार नहीं क्यों?
बड़े बुजुर्गों की अनदेखी रुकती है दुत्कार नहीं क्यों?
हम सबने शायद वही पढ़ा जिसमें थी बात कमाई की।
बप्पा जहां डैड कहलाते जगह न किंचित माई की।।
मूल्यहीन शिक्षा के खतरे से अवगत सरकार नहीं क्यों?
छोटे बड़े सभी लोगों में दिखते हैं संस्कार नहीं क्यों?
इंच इंच पर गिरता लट्ठा धक्कामुक्की मची हुई।
बांह बटोरे कुरुक्षेत्र में तलवारें नित खिंची हुई।।
बड़े बुजुर्गों की पंचायत औ उनका सत्कार नहीं क्यों?
आज शाम का भोजन संग में करता है परिवार नहीं क्यों?
छोटे बड़े सभी लोगों में सहनशीलता लुप्त हो गयी।
रिश्तों की गर्माहट वाली क्रियाशीलता सुप्त हो गयी।।
बच्चे भी प्रत्युत्तर देते दिखता है संस्कार नहीं क्यों?
मांगलिक कार्यों तक में भी जुटता है परिवार नहीं क्यों?
चिंतनीय है सोचनीय है कालिख है हम पढ़ेलिखों पर।
हकहुकूक अधिकार मांगते परत मैल की जमी दिलों पर।।
लौट चलें फिरसे बचपन में अन्य उपागम सार नहीं क्यों?
त्रासद नहीं महात्रासद है अपनों में ही प्यार नहीं क्यों?
– डॉ.उदयराज मिश्र
चिंतक एवं विचारक


