
धर्मचक्र परिवर्तन के प्रतिपादक तथागत गौतम बुद्ध और उनके उपदेश किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। वे न खंडन-मंडन से प्रभावित होते हैं और न किसी संकीर्ण दृष्टि से। बुद्ध का मध्यम मार्ग ही मानव-सुख का मूल है और सामाजिक न्याय के आदि-सिद्धांतों का जनक भी। समता, ममता, करुणा, बंधुत्व और उदारता उनके शिक्षाओं में ऐसे पिरोये हुए लगते हैं मानो मानवता की माला के मोती हों।यदि प्रभु श्रीराम के रामराज्य, श्रीकृष्ण के मित्रधर्म और भगवान महावीर की अहिंसा परमो धर्म: की शिक्षाओं का कोई समन्वित, सर्वमान्य और तटस्थ रूप माना जाए, तो निस्संदेह वह महात्मा बुद्ध का समतामूलक संदेश ही है। किंतु विडंबना यह है कि आज नवबौद्धिष्टों द्वारा बुद्ध के उपदेशों को जिस प्रकार स्वार्थवश तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है, उससे सर्वाधिक चोटिल यदि कुछ है, तो वह स्वयं बुद्ध का मध्यम मार्ग ही है। अतः समय रहते इस कुचक्र का निवारण कर धर्मचक्र परिवर्तन की मूल भावना को पुनः अंगीकृत करना अत्यावश्यक है।
विभिन्न बौद्ध ग्रंथों और कृतियों के अनुशीलन से पता चलता है कि बुद्ध का जन्म, संस्कार और प्रथम शिक्षा सहित पूरा जीवन दर्शन सनातन परंपरा के प्रभाव से ओतप्रोत है।इक्ष्वाकु वंशीय सूर्यवंशी क्षत्रिय राजकुल में महाराज शुद्धोधन और महारानी महामाया के घर जन्मे बालक सिद्धार्थ का नामकरण शाक्य कुल के कुलगुरु महर्षि असित ने किया था। महर्षि असित ही उनके कुलगुरु थे।उन्होंने जन्म लेते ही कहा था कि यह बालक अखिल ब्रह्मांड पर प्रेम की सत्ता स्थापित करेगा—और आगे चलकर यह भविष्यवाणी यथार्थ सिद्ध हुई।गौतम गोत्रीय होने के कारण वे गौतम कहे गये और ज्ञान प्राप्ति के उपरांत गौतम बुद्ध कहलाए।
राजकुमार सिद्धार्थ की प्रारंभिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र के अधीन हुई। यह तथ्य स्वयं इस बात का प्रमाण है कि बुद्ध का बचपन पूर्णतः वैदिक-सनातनी संस्कारों में व्यतीत हुआ। वे वेद, धनुर्वेद, राजधर्म, नीति, योग और दर्शन के प्रारंभिक रूपों से उसी प्रकार परिचित कराए गये जैसे किसी वैदिक क्षत्रिय राजकुमार को तैयार किया जाता है,किंतु ज्ञान-पिपासा से उद्विग्न होकर 29 वर्ष की आयु में जब वे महल त्यागकर निकले, तब उन्हें प्रथम सन्यास-दीक्षा महर्षि आलार कालाम से तथा उसके बाद महर्षि उद्दक रामपुत्त से मिली।ये दोनों गुरु महर्षि पतंजलि प्रणीत योग और ध्यान के उच्च साधक थे। आलार कालाम की साधना आकाशानंत्यायतन तक और उद्दक रामपुत्त की साधना नेवसंज्ञानासंज्ञायतन तक पहुँचाती थी—जो उपनिषदों में वर्णित ध्यान-योग के अत्यंत उच्च सोपान हैं।अर्थात बुद्ध की साधना-यात्रा मूलतः सनातन के योग-उपनिषदिक मार्ग से ही प्रवाहित हुई।
बौद्ध साहित्यों के अनुसार सांख्य, योग और बुद्ध तीनों के बीच अन्योनाश्रित प्रामाणिक संबंध हैं।बुद्ध ने अपने सन्यास-पर्यटन के दौरान महर्षि कपिल के सांख्य दर्शन,पतंजलि परंपरा के आष्टांग योग,ब्रह्मचर्य, तप और ध्यान की वैदिक परंपरा,इन सभी को सम्यक रूप से अध्ययन-अनुभव किया और इन्हें साधना का माध्यम बनाया।हालाँकि उन्होंने ये शिक्षाएँ प्रत्यक्ष इन ऋषियों से नहीं पाईं, परंतु जो गुरु उन्हें मिले, वे उन्हीं सनातन परंपराओं के अनुयायी और संवाहक थे। इसी कारण अधिकांश बुद्ध प्रतिमाएँ ध्यान-मुद्रा में दिखाई देती हैं—जो स्पष्टतः पतंजलि-निर्दिष्ट ध्यान का स्वरूप है।
बुद्ध द्वारा कठोर तपस्या का परित्याग कर मध्यम मार्ग का अनुसरण करना ही उनकी शिक्षाओं और सामाजिक न्याय का प्रवेश द्वार है।प्रारंभिक साधना में बुद्ध ने अत्यंत कठोर तप किया—यहाँ तक कि भोजन तक छोड़ दिया। किंतु क्षीणकाय होने पर जब कुछ स्त्रियों का मधुर गीत सुनकर उन्हें “अति सर्वत्र वर्जयेत” का बोध हुआ, तब उन्होंने पुनः अन्न ग्रहण किया और मध्यम मार्ग को जीवन का आधार बनाया।यही वह ऐतिहासिक क्षण है जब उन्होंने समझा कि न इंद्रिय-भोग का अतिरेक हितकारी है, न तप का अतिरेक। जीवन को संतुलन चाहिए—वही मध्यम मार्ग है।उन्होंने मध्यम मार्ग को सामाजिक न्याय का प्रथम सिद्धांत मानते हुए अपने जीवन को ध्यान और युग में तल्लीन किया।बुद्ध के अनुसार अहम, लोभ, मोह, मद, द्वेष का त्याग,प्राणिमात्र को अपना परिजन मानना,सबके साथ समान व्यवहार करना,शोषक-शोषित की विभाजक रेखा मिटाना ही सामाजिक न्याय का आधार है।कपिलवस्तु वापसी पर राजसभा में ‘शाक्यमुनि’ के रूप में उन्होंने स्पष्ट कहा था कि “जब शासक वर्ग स्वयं को प्रजा से अलग मानने लगता है, तब समाज में शोषण जन्म लेता है।”उन्होंने राजा-प्रजा संबंध को पिता-पुत्र समान बताया और कहा कि—“राजा को चाहिए कि वह प्रजा को इतना सुख अवश्य दे कि वह जीवन को धारण कर सके।”यह उपदेश किसी आधुनिक सामाजिक न्याय सिद्धांत से किसी भी प्रकार कमतर नहीं।कदाचित बुद्ध का यह सिद्धांत ही त्रेतायुग के रामराज्य का परिचायक है।जहां प्रभु श्रीराम स्वयं प्रजा से कहते हैं कि –
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।
सो नृप अवसि नरक अधिकारी।।
जौ अनीति कछु भाखौं भाई।
तौ मोहिं बरजहु भय बिसराई।।
प्रभु श्रीराम का आचरण यथा एक राजकुमार रहते हुए केवट को गले लगाना,शबरी का सानिध्य ग्रहण करना और वनवासी जनजातियों के संग तादात्म्य स्थापित करते हुए नीच राक्षसों का अंत करना ही बुद्ध के सामाजिक न्याय का श्रीगणेश खा जाना ज्यादा श्रेयस्कर है।इसी को गौतम बुद्ध ने मध्यम मार्ग और सामाजिक न्याय का सिद्धांत कहा है।
आजकल नवबौद्धिष्टों द्वारा नित्यप्रति सनातन संस्कृति पर ऊलजुलूल वक्तव्य देना आम बात हो गई है।कदाचित ऐसे मतिभ्रष्टों को बुद्ध और सनातनके निष्पक्ष संबंधों का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं होता है।ऐसे लोग राजनैतिक जातीय नेताओं और कुछ दिग्भ्रमित भिक्षुओं के चढ़ाने पर बिना सोचे विचारे विधर्मियों की तरह आचरण करने लगते हैं,जोकि चिंतनीय है।कदाचित नवबौद्धिष्टों को नहीं ज्ञात है कि सनातन हिंदू धर्म बुद्ध को भगवान विष्णु का नवम अवतार मानता है।जबकि नवबौद्धवादी खंडन-मंडन में विश्वास करते हुए हिन्दू देवी-देवताओं का अपमान करने लगे हैं। सत्य यह है कि बौद्ध पंथ को सर्वाधिक क्षति किसी अन्य पंथ ने नहीं बल्कि इन्हीं छद्म पाखंडी नवबौद्धिष्टों ने पहुँचाई है।जैसे नकली सिक्के असली को चलन से बाहर कर देते हैं, वैसे ही ये नकली बौद्धिष्ट बुद्ध की करुणामयी विचारधारा को ही क्षतिग्रस्त कर रहे हैं।
नव बौद्धिष्टों को शायद यह ज्ञात नहीं है कि बुद्ध का सनातन अनुष्ठानों के प्रति सम्मान अनुकरणीय है।यह तथ्य भी महत्त्वपूर्ण है कि बुद्ध ने अग्निहोत्र का सम्मान किया,अष्टांग योग को कर्तव्य माना,गायत्री मंत्र की महिमा स्वीकार की,ब्रह्मचर्य व भिक्षाटन को ऋषियों-सदृश अंगीकृत किया,बोध गया में ज्ञानप्राप्ति और काशी मृगदाय वन में प्रथम उपदेश देकर मानवता को दिशा देने वाले बुद्ध ने 80 वर्ष की आयु में कुशीनगर में परिनिर्वाण प्राप्त किया।
बुद्ध का मध्यम मार्ग और रामराज्य : न्याय, समता और करुणा का साझा आदर्श है।तथागत गौतम बुद्ध का मध्यम मार्ग और प्रभु श्रीराम का रामराज्य—दोनों भारतीय चिंतन की वे ध्रुव शक्तियाँ हैं, जिनका केंद्र करुणा, समता और न्याय ही है। रूप भिन्न हो सकते हैं, पर उद्देश्य एक ही—ऐसा समाज जहाँ शोषण न हो, भेदभाव न हो और प्राणिमात्र को जीने लायक सम्मान मिले।रामराज्य का मूल दर्शन कहता है कि“जनप्रतिपालक बनो, दण्डदाता नहीं;
प्रजा पिता अधिकार की नहीं, पुत्रवत स्नेह की पात्र है।”
उधर बुद्ध का मध्यम मार्ग सिखाता है—
“न अति भोग, न अति तप;न हिंसा, न अन्याय—सबके लिए समान अवसर।”दोनों ही मार्गों में समाज का संचालन दमन या दण्ड से नहीं, बल्कि धर्म, प्रेम और न्याय से होता है।रामराज्य में राजा जनक और श्रीराम स्वयं न्याय व समरसता का आधार बनते हैं; बुद्ध के मध्यम मार्ग में शासक और प्रजा—दोनों को लोभ, मोह, क्रोध और अहंकार से ऊपर उठने की शिक्षा मिलती है।
बुद्ध का यह वचन—“शासक स्वयं को प्रजा से भिन्न मान ले तो शोषण जन्म लेता है”—रामराज्य के उस सिद्धांत से पूरी तरह मेल खाता है जहाँ राजा और प्रजा के बीच पिता-पुत्र का भाव सर्वोच्च माना गया।रामराज्य की सामाजिक-आर्थिक न्याय व्यवस्था और बुद्ध का करुणामय मध्यम मार्ग—दोनों ही भारत की सनातन परंपरा के वे दो स्तम्भ हैं, जो यह संदेश देते हैं कि—
“अति हर स्थिति में अशुभ है, संतुलन ही कल्याण का मार्ग है।”आज जब जातीयता, राजनैतिक स्वार्थ और सामाजिक विभाजन बढ़ रहे हैं, तब बुद्ध का मध्यम मार्ग और रामराज्य का न्याय-धर्म—दोनों ही राष्ट्रीय चरित्र के पुनर्निर्माण की आवश्यक आधारशिला बन सकते हैं।



