
कंपित खड़े थे धनुर्धर अरि-मर्दन,
हृदय थरथराता विवश पार्थ था।
स्वजन-समीप खड़े प्रलय-संकट,
करुणा-सुधा से भरा मार्त था।
धर्म-युद्ध की विभ्रमित गाथा,
मोह-बँधन में जकड़ा दिशाभ्रांत था।
देख यह दशा अर्जुन की क्षीण,
मधुसूदन स्वयं ही वहाँ तत्त्वसंत था।
बोले—“त्यज प्रभु भय, यह क्षुद्र जड़ता,
न वीरों उपेक्षित मलिन भाव है।
आत्मा अनादि अमृत रूप अखंड,
न उसको लयाचे न कोई नाव है।
शस्त्र न काट सके, वह न दह सके—वह सत्य सदा स्थित, अपरिचाव है।
उठ पार्थ! तव धर्म यही,
हृदय में जगा तेज ज्यों उषा-प्रभात आलाव है।”
मोह-धुंध हटे क्षण-भर में ऐसे,
ज्यों मेघ हटे नभ पर प्रभा छा गई।
गाण्डीव उठा दृढ़ भुजबल से,
दृढ़ता पुनः हृदय में प्रबुद्ध आ गई।
केशव की वाणी-सरिता बहती,
तन-मन पावन कर लौ निखर जा गई।
विजय-पथगामी दोनों हुए फिर,
कुरुरणभूमि में धर्म-ध्वजा फहरा गई।
डाॅ सुमन मेहरोत्रा
मुजफ्फरपुर, बिहार



