
विजयादशमी ने दिया, हमको यह उपहार।
अच्छाई के सामने, गयी बुराई हार।।
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विजयादशमी विजय का, पावन है त्यौहार।
आज झूठ है जीतता, सत्य रहा है हार।।
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रावण के जब बढ़ गये, भू पर अत्याचार।
लंका में जाकर उसे, दिया राम ने मार।।
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अब तो पुतले दहन का, बढ़ने गया रिवाज।
मन का रावण आज भी, जला न सका समाज।।
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आज भोग में लिप्त हैं, योगी और महन्त।
भोली जनता को यहाँ, भरमाते हैं सन्त।।
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दावे करते हैं सभी, बदलेंगे तकदीर।
अपनी रोटी सेंकते, राजा और वजीर।।
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मनसा-वाचा-कर्मणा, नहीं सत्य भरपूर।
आम आदमी मजे से, आज बहुत है दूर।।
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