
देखो..,देखो तो प्रिये..,
दूर आसमान में,
वो टूटा हुआ इक तारा,
कैसे जा रहा है, दूर बहुत दूर,
बिछुड़ कर…अपनों से,
इस अंबर के आंगन से,
होने को विलीन दूर गगन में,
एकाकी…,
वो टूटा हुआ इक तारा…,
कैसे जा रहा है दूर बहुत दूर।
होंगे , उसके भी तो अपने,
संगी साथी और रिश्ते नाते,
कुछ पल को -वो भी तो,
हुए होंगे उदास –और
रोये भी होंगे -उसके लिए,
क्योंकि…!
वो होगा उनका बेहद प्यारा,
और दुलारा आँखों का तारा,
वो टूटा हुआ इक तारा…,
कैसे जा रहा है दूर बहुत दूर,
बिछुड़ कर अपनों से.. दूर बहुत दूर।।
*शशि कांत श्रीवास्तव*
*डेराबस्सी मोहाली, पंजाब*
©स्वरचित मौलिक रचना
14-02-2025=00:33hr.




