आलेख

रह गई स्मृतियां,,,,

विलुप्त होती शादी व्याह की पररम्पराएं

डॉ. आशीष मिश्र उर्वर
पहले समय में गांव में न टेंट हाउस थे और न ही कैटरिंग की कोई व्यवस्था थी, थी तो बस मानवता एवं सामाजिकता। गांव में जब कोई शादी व्याह होता तो घर घर से चारपाई बिस्तर एवं बर्तन जैसे सामान पड़ोसियों से मांग कर आ जाया करते थे, और गांव की महिलाएं ही एकत्र हो कर खाना आदि बना दिया करती थी, पार्लर जैसी व्यवस्था खुद घर की महिलाएं ही संभालती थी, तथा हर रस्म पर गीत गारी खुद ही गाया करती थी , तब अनिल डीजे सुनील डीजे जैसी व्यवस्था नहीं थी और न ही कोई आर्केस्ट्रा जैसी फ़ूहड़ नाच व्यवस्था। गांव के कुछ चौधरी टाइप के लोग काम काज को देखने में पूरा दिन लगे रहते थे साथ ही साथ हंसी-मजाक लगा रहता था और समारोह का काम भी होता रहता था। शादी व्याह में गांव के लोग बारातियों के खाने से पहले खाना नहीं खाते थे क्योंकि वहां घरातियों के इज्जत का सवाल होता था। गांव की महिलाएं गीत गायन के साथ अपने काम को करती रहती थी, सच कहूं तो उस समय लोगों में सामाजिकता के साथ समरसता भी होती थी, खाना आदि परसने का कार्य गांव के नवयुवक गैंग जिम्मेदारी से संभाल लेते थे। कोई बडे घर की शादी होती थी तो टेप बजा दिया जाता था जिसमें एक कामन गाना बजता था…, मैं शेहरा बांध के आऊंगा मेरा वादा है, और दूल्हे राजा भी उस दिन किसी युवराज से कम नहीं समझते थे। दूल्हे के आस पास नाऊ हमेशा साये की तरह मौजूद होता था और समय समय पर दूल्हे का बाल संभालते रहता था, ताकि दूल्हा सुंदर दिखाई दे, फिर द्वार पूजा होती है और फिर रात-भर पंडित जी के मंत्रोच्चार से विवाह कार्य सम्पन्न होता था। उसके बाद कोहबर कार्यक्रम शुरू होता था, इस रस्म में दूल्हा दुल्हन को दो मिनट के लिए एक साथ छोड़ दिया जाता था जिसमें एक दूसरे को निहारने में दो मिनट बीत जाता था।
उसके बाद खिचड़ी में गांव की महिलाएं जमकर गालीगीत गाती थी और यही वह रस्म है जिसमें दूल्हे राजा जेम्स बांड बन जाते हैं और कहते हैं न हम नहीं खायेंगे खिचड़ी फिर उनको मनाने कन्यापक्ष से धुरंधर लोग आते हैं लेकिन बात नहीं बनती क्यों कि दूल्हे की सेटिंग बड़े भाई या चाचा बाबा से पहले से ही होती थी उसी दौरान आधा घंटा लगभग रिशियाने का कार्य चलता है, दूल्हे के छोटे भाई सहबाला का भी भौकाल टाइट रहती है लगे हाथ वह कुछ न कुछ लहा ही लेता है, फिर एक जयघोष के साथ खिचड़ी का एक कंण दूल्हे के मुह में जाता है तब एक मुस्कान के साथ वर वधू पक्ष दोनों इस पल का आनंद लेते है। इसके बाद अचर धरउआ रस्म होता है जिसका आला कमान घर की महिलाएं संभालती थी जिसमें महिलाओं द्वारा दूल्हे को तोहफा स्वरूप कुछ उपहार दिया जाता था। दूल्हे के कौशल परिक्षण हेतु दूल्हे का श्रृंगार किया जाता था। और ये सब बीतने के बाद विवाह समीक्षा चर्चा होती थी। इसके बाद लड़कियां जूता चुराती थी और 101 रुपए में मान भी जाती थी। फिर गिने चुने बुजुर्गों द्वारा माडौ यानी विवाह के कार्यक्रम हेतु अस्थाई छप्पर को हिलाने का कार्य किया जाता था, और विदाई के समय नगद नारायण कड़ी कड़ी 10 रूपए की नोट कहीं कहीं 20 की भी मिल जाती थी मिलने के बाद ओ स्वार्गिक अनुभूति होती कि शब्दों में बयां नहीं कर सकते, हालांकि माता जी द्वारा उस विदाई में मिले रूपये एक रूपए में बदल दिया जाता था, आज की पीढ़ी उस वास्तविक आनंद से वंचित हो चुकी है जो, जो आनंद हम अपने समय में शादी व्याह में ले चुके हैं आज की पीढ़ी के कल्पना के परे है। लोग बदल रहे हैं और परम्पराओं में भी बदलाव हो चुका है।
अवधी में भाव बा “इही से हम कहीथा कि जौन मजा उ समय में रहा ऊ अब नाय रहिगा। धीरे-धीरे कुल बदलत जात बा”।
कहने का मतलब सिर्फ एक ही है कि आज हमारा समाज अपनी परंपरा को छोड़ रसियन कल्चर की तरफ बढ़ रहा है, जो कि समाज केलिए सिर्फ और सिर्फ छलावा है। आज की वैवाहिक पद्धति सब आर्टिफिशियल तरीके से किया जा रहा है, बहुतायत संख्या में शादियां मैरेज हॉल में सम्पन्न होने के कारण बहुत से रीति रिवाजों पर ताला लग गया है, पहले जैसा आपसी सौहार्द की बलि चढ़ाई जा रही है।

साहित्यकार एवं लेखक:-
डॉ. आशीष मिश्र उर्वर
कादीपुर, सुल्तानपुर उ. प्र.

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