
मध्यप्रदेश और राजस्थान से आई यह दर्दनाक खबर पूरे देश के स्वास्थ्य तंत्र पर सवाल खड़े करती है। कथित तौर पर खांसी की सिरप पीने से 14 मासूम बच्चों की मौत हो गई। यह केवल एक दुर्घटना नहीं, बल्कि उस लापरवाही की पराकाष्ठा है जो हमारे औषधि निर्माण और वितरण प्रणाली में वर्षों से पनप रही है। जब इलाज ही जानलेवा बन जाए, तो यह न केवल विज्ञान की विफलता है, बल्कि शासन-प्रशासन और नैतिकता की भी पराजय है।
केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (CDSCO) ने मामले की गंभीरता को देखते हुए छह राज्यों में दवा निर्माण इकाइयों की जांच शुरू कर दी है। शुरुआती जांच में जो तथ्य सामने आए हैं, वे चिंता और आक्रोश दोनों उत्पन्न करते हैं—कई फैक्टरियों में गुणवत्ता नियंत्रण के मानक पूरे नहीं किए गए, प्रयोगशालाओं में परीक्षण के अभाव में दवाएं बाज़ार में पहुँच गईं, और सबसे गंभीर बात यह कि इन दवाओं में उपयोग किए गए रासायनिक घटकों (सॉल्वेंट्स) की शुद्धता पर प्रश्नचिह्न हैं।
यह कोई पहला मामला नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में गाम्बिया, उज्बेकिस्तान और कैमरून जैसे देशों में भी भारत निर्मित खांसी की सिरप से बच्चों की मौतों की घटनाएँ सामने आ चुकी हैं। हर बार सरकार ने जांच बैठाई, रिपोर्ट आई, कुछ फैक्टरियाँ बंद हुईं, परन्तु उसके बाद सब कुछ पहले जैसा हो गया। ऐसा लगता है जैसे दवा उद्योग में “मानव जीवन” अब केवल एक आंकड़ा बनकर रह गया है।
भारत विश्व की “फार्मेसी ऑफ द वर्ल्ड” कहा जाता है। हमारे देश की दवाएं न केवल घरेलू बाजार में बल्कि विदेशों में भी जाती हैं। ऐसे में अगर गुणवत्ता नियंत्रण में ढील दी जाती है, तो यह न केवल स्वास्थ्य का प्रश्न है, बल्कि राष्ट्र की साख का भी मामला है। दवा उद्योग में पारदर्शिता, ट्रेसबिलिटी और जवाबदेही की सख्त जरूरत है। यह आवश्यक है कि हर उत्पादित बैच की स्वतंत्र प्रयोगशाला से जांच अनिवार्य की जाए, और परीक्षण रिपोर्ट सार्वजनिक पोर्टल पर उपलब्ध कराई जाए।
इन मौतों की जिम्मेदारी केवल कंपनियों की नहीं, बल्कि नियामक तंत्र की भी है। दवा नियंत्रण अधिकारियों की भूमिका पर भी सवाल उठता है कि क्या उन्होंने कभी इन इकाइयों का निरीक्षण किया? अगर किया तो त्रुटियाँ क्यों नहीं पकड़ी गईं? यदि नहीं किया तो यह सीधा प्रशासनिक अपराध है।
बच्चों की मौतें हमें यह याद दिलाती हैं कि जनस्वास्थ्य केवल अस्पतालों, डॉक्टरों और वैक्सीन तक सीमित नहीं है — यह उन दवाओं की गुणवत्ता पर भी निर्भर करता है जो आम आदमी अपने बच्चों को विश्वास के साथ देता है। विश्वास टूट जाए तो व्यवस्था खोखली हो जाती है।
अब वक्त है कि सरकारें केवल “जांच” या “निलंबन” तक सीमित न रहें। दवा निर्माण से लेकर वितरण तक एक पारदर्शी ट्रैकिंग सिस्टम विकसित किया जाए, जिसमें हर बोतल की उत्पत्ति, परीक्षण, और बिक्री का रिकॉर्ड डिजिटल रूप से मौजूद हो। साथ ही दोषी कंपनियों पर केवल लाइसेंस रद्द करने से आगे बढ़कर आपराधिक मुकदमे चलाए जाएँ ताकि यह एक मिसाल बन सके।
यह मामला केवल 14 मासूम जिंदगियों की त्रासदी नहीं है; यह पूरे देश के औषधि नैतिकता और जनविश्वास की परीक्षा है। यदि हम इस बार भी चूक गए, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ नहीं करेंगी।
डाॅ.शिवेश्वर दत्त पाण्डेय
समूह सम्पादक

