आलेख

वाल्मीकि- आदि कवये नमः

डॉ.उदयराज मिश्र

वाल्मीकि- आदि कवये नम
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रामनाम संकीर्तन का फल क्या होता है?इसके साक्षात् प्रतिमूर्ति महर्षि बाल्मीकि सनातन संस्कृति के जाज्वल्यमान मार्तंड माने जाते हैं।गोस्वामी तुलसीदास जी रामनाम संकीर्तन के परिणामस्वरूप महर्षि बाल्मीकि के ब्रह्म समान होने का सुंदर वर्णन करते हुए लिखा है कि –
रामनाम कर अमित प्रभावा।
बेद पुरान मुनिन्ह सब गावा।।
उल्टा नाम जपत जग जाना।
बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।।
भारतीय संस्कृति में ऋषि-मुनियों की परंपरा युगों से चली आ रही है। इस परंपरा में महर्षि वाल्मीकि का स्थान अद्वितीय है। उन्हें आदिकवि कहा जाता है, क्योंकि उनकी रचना रामायण संस्कृत साहित्य की प्रथम महाकाव्य मानी जाती है। महर्षि वाल्मीकि केवल एक कवि ही नहीं, बल्कि समाज सुधारक, अध्यात्मवेत्ता और वेदांतदृष्टा भी थे।
आश्विन शुक्ल पूर्णिमा को जन्मे महर्षि वाल्मीकि का प्रारंभिक नाम रत्नाकर बताया जाता है। किंवदंती है कि वे अपने परिवार के पालन हेतु मार्ग में यात्रियों से लूटपाट किया करते थे। एक दिन जब उन्होंने महर्षि नारद को लूटने का प्रयास किया, तो नारद ने उन्हें सत्संग का महत्व समझाया और भक्ति का मार्ग दिखाया। नारद के उपदेश से रत्नाकर को आत्मबोध हुआ और वे तपस्या में प्रवृत्त हो गए। दीर्घकालीन कठोर साधना के उपरांत वे ‘वाल्मीकि’ कहलाए, क्योंकि उनकी तपस्थली पर दीमकों (वाल्मीक) का विशाल टीला बन गया था।
वाल्मीकि का सबसे बड़ा योगदान रामायण है। इसमें २४,००० श्लोकों के माध्यम से भगवान श्रीराम के जीवन, आदर्शों और मर्यादाओं का वर्णन है। यह महाकाव्य केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि नीति, धर्म, राजनीति और मानव-जीवन के आदर्शों का विश्वकोश है।वाल्मीकि के काव्य में प्रकृति का सूक्ष्म चित्रण, भावों की गहराई और भाषा की मधुरता देखने को मिलती है। शोक से उत्पन्न होकर उनके मुख से निकला पहला श्लोक—
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥
इसको संस्कृत साहित्य का प्रथम श्लोक माना जाता है।यह श्लोक महर्षि बाल्मीकि द्वारा तमसा नदी के तट पर प्रणीत वेदोत्तर काल का पहला श्लोक है।इसकी रचना के उपरांत ही उन्होंने रामकथा का वर्णन करके अपने मन की व्यथा को शांत किया था।लिखा गया है –
तमसा के तट एकदिन,ऋषिवर बैठे ध्यान।
तभी व्याध ने लक्ष्य कर,किया बाण संधान।।
क्रौंच गिरा घायल हुआ,ऋषिवर हुए अधीर।
रामकथा के लेख से, स्वयं मिटाए पीर।।
वाल्मीकि ने समाज में समानता, न्याय और सदाचार के आदर्शों को प्रस्तुत किया। उनके आश्रम में सीता माता ने लव-कुश को जन्म दिया और उन्हें शिक्षा दी। इससे यह संदेश मिलता है कि उनका आश्रम केवल तपोभूमि ही नहीं, बल्कि शिक्षा और संस्कृति का केंद्र भी था।
महर्षि बाल्मीकि ने रामायण के पात्रों के माध्यम से सत्य,धर्म और मर्यादा का महत्व प्रतिपादित किया।सीता के चरित्र के माध्यम से स्त्री-शक्ति और उसकी पवित्रता को उच्च स्थान दिया।उन्होंने इस सत्य को भी प्रतिपादित किया कि नारी शक्ति का अपमान करके महापराक्रमी व्यक्ति भी अपने अंत से बच नहीं सकता। यहीं उन्होंने यह भी बताया कि वंदनीय होने के बावजूद ताड़का और सुपनखा जैसी कपटी और दुष्ट स्त्रियों को उचित दंड देना भी धर्म स्थापना है।विभीषण के चरित्र का चित्रण करते हुए उन्होंने दुनियां को यह संदेश दिया कि प्रभु की कृपा निष्कपट भाव से भजन करने पर नीच से अधम व्यक्तियों को भी सहज प्राप्त होती है।प्रभु की कृपा के पात्र वे ही लोग होते हैं जो गुरु में श्रद्धा रखते हैं और समर्पण भाव से नाम संकीर्तन करते हैं।उनकी वाणी में संवेदना और करूणा का समावेश है।
आज के युग में जब समाज भौतिकता की ओर दौड़ रहा है, तब वाल्मीकि का संदेश और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। उनकी रचनाएँ यह सिखाती हैं कि मानव जीवन का परम उद्देश्य धर्म, सत्य और मर्यादा का पालन करना है। वे यह भी बताते हैं कि कोई व्यक्ति अपने अतीत से नहीं, बल्कि अपने कर्मों और आदर्शों से महान बनता है।
महर्षि वाल्मीकि भारतीय अध्यात्म और साहित्य के अमर नक्षत्र हैं। उन्होंने जिस रामायण की रचना की, वह न केवल भारत में, बल्कि सम्पूर्ण विश्व में लाखों-करोड़ों लोगों के लिए जीवन का मार्गदर्शक है। इसलिए ही उन्हें आदिकवि, महान समाज-सुधारक और धर्ममार्गदर्शक के रूप में सदैव स्मरण किया जाता है।महर्षि बाल्मीकि की महानता और उनकी श्रेष्ठता का वर्णन करते हुए आचार्य त्रिविक्रमभट्ट ने लिखा है कि –
सदूषणापि निर्दोषा सखरापि सुकोमला।
नमस्तस्यै कृता येन रम्या रामायणी कथा।।
अर्थात वह कथा जिसमें दूषण अर्थात दोष(यहां दूषण राक्षस) होने पर और खर अर्थात बहुत ही कठोर(यहां खर नामक राक्षस) होने पर भी अत्यंत कोमल है,मनभावन है,ऐसी कथा को लिखने वाले महर्षि बाल्मीकि को नमस्कार है।उनकी महानता और रामभक्ति के चलते ही उन्हें आदिकवि की पदवी प्राप्त है और उनकी जयंती को प्रतिवर्ष आश्विन शुक्ल पूर्णिमा को बड़ी ही श्रद्धा और विश्वास के साथ गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है।
-डॉ.उदयराज मिश्र

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