आलेख

आचार्य शीलक राम के साहित्य में सामाजिक चेतना

डॉ सुरेश जांगडा

साहित्य समाज का दर्पण माना जाता है। किसी भी युग के लेखक का मूल्यांकन इस आधार पर किया जाता है कि उसने अपने समय के सामाजिक यथार्थ को किस हद तक समझा और प्रस्तुत किया। हिन्दी साहित्य परंपरा में कबीर, तुलसी, प्रेमचंद, महादेवी, निराला से लेकर समकालीन रचनाकारों तक ने सामाजिक चेतना को अपने लेखन का केन्द्र बनाया। इसी परंपरा में आचार्य शीलक राम का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उनका लेखन केवल बौद्धिक या साहित्यिक रचना नहीं है, बल्कि सामाजिक जागरण, सुधार और परिवर्तन का आंदोलन भी है। उन्होंने काव्य, निबंध, आलोचना, महाकाव्य और शोधपरक लेखन के माध्यम से शिक्षा, धर्म, राजनीति, ग्राम्य जीवन, नैतिकता और राष्ट्रप्रेम जैसे विषयों पर गहन दृष्टि डाली है।

आचार्य जी के छपी अब तक की 50 से अधिक पुस्तकें, 1000 से अधिक लेख और 150 से अधिक शोध-पत्र इस बात का प्रमाण हैं कि वे साहित्य, संस्कृति, धर्म और दर्शन के विविध क्षेत्रों में निरंतर सक्रिय हैं। उनकी प्रमुख कृतियों में “भगवान का गीत”, “मुक्तिदाता चौधरी छोटूराम”, “राष्ट्रनायक: हमारा हरियाणा”, “विश्वगुरु आर्यावर्त भारत” (महाकाव्य), “भगवान बुद्ध का आर्य वैदिक सनातन हिन्दू दर्शन” तथा “अधखिले कमल” (काव्य संग्रह) विशेष उल्लेखनीय हैं।

आचार्य शीलक राम का मानना है कि शिक्षा केवल रोजगार पाने का साधन नहीं, बल्कि जीवन मूल्यों और समाज सुधार का माध्यम होनी चाहिए। उनके लेख “विद्या ददाति विनयम् लेकिन आधुनिक शिक्षा?” तथा “वैचारिक क्रांति, आधुनिक शिक्षा और प्रगति” इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। वे बताते हैं कि आधुनिक शिक्षा प्रणाली में नैतिकता और संस्कारों का अभाव समाज को खोखला बना रहा है। उनका आह्वान है कि शिक्षा से विवेक, अनुशासन, समानता और सेवा-भाव जागृत होना चाहिए।

धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में भी वे गहन चिंतन करते हैं। उनका स्पष्ट विचार है कि धर्म का उद्देश्य मानवता, नैतिकता और सत्य की स्थापना है, न कि पाखंड और अंधभक्ति। वे उन तथाकथित संतों और बाबाओं की आलोचना करते हैं जो धर्म के नाम पर शोषण और अंधविश्वास फैलाते हैं। इस दृष्टि से उनका ग्रंथ “भगवान बुद्ध का आर्य वैदिक सनातन हिन्दू दर्शन” महत्त्वपूर्ण है, जिसमें उन्होंने धर्म को समाज सुधार और शांति का साधन बताया है।

उनकी कविताओं और आलोचनात्मक लेखन में समाज में फैली असमानता, जातिगत भेदभाव, भ्रष्टाचार और नैतिक पतन का यथार्थ चित्रण मिलता है। वे केवल समस्याएँ नहीं दिखाते, बल्कि सुधार का मार्ग भी सुझाते हैं। उनका मानना है कि सामाजिक एकता और समानता के बिना राष्ट्र की प्रगति असंभव है।

उनकी रचनाओं में राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय एकता का स्वर गूंजता है। उनके महाकाव्य “विश्वगुरु आर्यावर्त भारत” में भारतीय संस्कृति, गौरव और भविष्य की संभावनाओं का व्यापक चित्रण मिलता है। वे भारत को विश्वगुरु के रूप में पुनः स्थापित करने की अपील करते हैं। उनका मानना है कि भारतीय समाज को अपने स्वधर्म, स्वभाषा और स्वसंस्कृति के साथ जुड़कर ही वास्तविक उन्नति प्राप्त हो सकती है।

आचार्य शीलक राम का साहित्य हरियाणवी लोकजीवन और संस्कृति से भी गहराई से जुड़ा है। उनकी कविताओं और लेखों में ग्रामीण जीवन की पीड़ा, संघर्ष और लोकमंगल की आकांक्षा उभरकर सामने आती है। वे गाँव के किसानों, मजदूरों और दलितों की समस्याओं को स्वर देते हैं।

उनका साहित्य बार-बार हमें यह स्मरण कराता है कि यदि समाज को सुदृढ़ बनाना है तो नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना अनिवार्य है। सत्य, अहिंसा, ईमानदारी, भाईचारा और परोपकार जैसे मूल्य उनके साहित्य में बार-बार प्रतिध्वनित होते हैं। राजनीति के पाखंड, नेताओं के स्वार्थ, शिक्षा के व्यवसायीकरण, धर्म के बाजारीकरण और मीडिया की विसंगतियों पर भी उन्होंने बेबाकी से कलम चलाई है। वे कहते हैं कि जब तक व्यक्ति कथनी-करनी का अंतर नहीं मिटाएगा, तब तक सामाजिक चेतना केवल नारेबाजी तक सीमित रहेगी।

उनकी कृति “अधखिले कमल” में मानव जीवन की विडंबनाओं और संवेदनाओं का चित्रण है। यह संग्रह आमजन के दुख-दर्द और सामाजिक विसंगतियों की ओर ध्यान आकर्षित करता है। “मुक्तिदाता चौधरी छोटूराम” किसानों और समाज सुधारकों के संघर्ष को प्रस्तुत करती है और सामाजिक न्याय की चेतना जगाती है। “विश्वगुरु आर्यावर्त भारत” राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का महाकाव्य है, जिसमें भारतीय संस्कृति की महानता और भविष्य की राह दिखाई गई है। “भगवान का गीत” और “भगवान बुद्ध का आर्य वैदिक सनातन हिन्दू दर्शन” धार्मिक चेतना के माध्यम से सामाजिक सुधार का मार्ग प्रशस्त करती हैं।

आज जब भारतीय समाज शिक्षा, राजनीति और संस्कृति के स्तर पर अनेक संकटों से जूझ रहा है, आचार्य शीलक राम का साहित्य विशेष रूप से प्रासंगिक हो उठता है। उनका लेखन हमें यह समझाता है कि शिक्षा में नैतिकता और संस्कार आवश्यक हैं, धर्म का उद्देश्य मानवता है न कि पाखंड, राष्ट्र की प्रगति में स्वभाषा, स्वसंस्कृति और स्वधर्म की भूमिका सर्वोपरि है, और सामाजिक विषमताओं को दूर किए बिना लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता।

इस प्रकार आचार्य शीलक राम का साहित्य केवल सौंदर्य-बोध कराने वाला साहित्य नहीं, बल्कि समाज को जागृत करने वाला साहित्य है। उनकी रचनाएँ हमें यह सिखाती हैं कि साहित्य का असली उद्देश्य समाज में चेतना जगाना, सुधार का मार्ग दिखाना और मानवता के उच्च आदर्शों को स्थापित करना है। शिक्षा, धर्म, राजनीति, ग्राम्य जीवन, नैतिक मूल्य और राष्ट्रप्रेम—इन सभी स्तरों पर उनकी लेखनी सामाजिक चेतना का प्रकाश फैलाती है। निस्संदेह, आचार्य शीलक राम का साहित्य समकालीन समाज के लिए एक दिशा-सूचक है और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

डॉ सुरेश जांगडा
राजकीय महाविद्यालय सांपला, रोहतक (हरियाणा)

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