
मायूसी को मार ठोकर चल पड़े है
उम्मीदों के बीज बोकर चल पड़े है
पीर आँखों में ही बादल से भरे हैं
धूप की किरणें भी राहों में खड़े हैं
सुख की झूला बाँहो में अपनी झुलाते
होंठ पीड़ा में भी हँस के गुनगुनाते
वेदना अंतस में गोकर चल पड़े हैं
मायूसी को मार ठोकर चल पड़े है
है तिमिर का राज जब भी पास आता
आस की किरण तभी है भोर लाता
फूल खिलते और खिलकर सुख जाते
खुशबू जीवन में मगर फ़िर भी ओ लाते
स्वप्न के झूलों में सोकर चल पड़े हैं
मायूसी को मार ठोकर चल पड़े हैं
जब कभी भी पाप है फलता दिखे
आस का दीपक तभी जलता दिखे
मन के भीतर स्वार्थ करता है दंगा
आँखों से बहती है तब पावन गंगा
मन के सारे मैल धोकर चल पड़े हैं
मायूसी को मार ठोकर चल पड़े हैं
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रीना प्रेम दुबे
डाल्टेनगंज




