
अश्विन महीने की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। एक दिन पहले से ही इसकी तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। हमारे घर में महालक्ष्मी जी के स्वागत के लिए विशेष पूजा होती है, जिसे हम लखी पूजा भी कहते हैं। गुलाबी ठंड मन के आंगन में दस्तक दे जाती है। प्रकृति भी सज-धज कर महालक्ष्मी के स्वागत में तैयार हो जाती है। वातावरण मन को प्रफुल्लित करता है। खेतों में हरी-हरी धान की बालियाँ फूटने लगती हैं। हम उन्हें तोड़कर माँ लक्ष्मी की पूजा के लिए लाते हैं। मैं यह पूजा पिछले 25 सालों से करती आ रही हूँ। मायके में भी यही होता था — वहीं से सीखा है। शरद पूर्णिमा के दिन सुबह से उठकर घर की साफ़-सफ़ाई करती हूँ और पूजा की तैयारी में लग जाती हूँ। निराहार रहकर हम पति-पत्नी मिलकर माँ के स्वागत की तैयारी करते हैं। घर की देहरी पर चावल पीसकर माँ के चरण बनाते हैं और मन में भाव रखकर माँ को बुलाते हैं — “माँ पधारो हमारे घर।” कलाकारी तो नहीं आती, लेकिन माँ के लिए कुछ न कुछ बना ही लेती हूँ। उन्हें सुंदर वस्त्र पहनाकर भगवान विष्णु के साथ उनका पूजन करती हूँ। रंग-बिरंगे फूलों से माँ को सजाती हूँ और रात भर अखंड दीप जलाती हूँ। पूजन में गुड़, चूड़ा, आटे का चूर्ण, फल और मेवा लेकर भोग लगाती हूँ, और सत्यनारायण भगवान की कथा भी सुनती हूँ। साथ में चंद्रदेव की पूजा करती हूँ, उन्हें अर्घ्य देकर खीर का भोग लगाती हूँ और कटोरे में भरकर छत पर रख देती हूँ। इस दिन अमृत की वर्षा होती है। कहा जाता है कि इस दिन चंद्रदेव सोलह कलाओं से युक्त होते हैं और अमृत की वर्षा करते हैं। इसी दिन भगवान कृष्ण ने राधा जी और गोपियों के साथ वृंदावन में महारास रचाया था, इसलिए यह दिन बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। पूरे श्रृंगार में, नए कपड़े और गहने पहनकर हम लक्ष्मी जी की पूजा करते हैं। कुबेर जी की भी पूजा होती है। पूरे घर में और मन में एक सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है — ऐसा लगता है जैसे प्रकृति भी आनंदित हो रही हो।
ममता गुप्ता टंडवा झारखंड




