साहित्य

सबकुछ देखते हुए

दिलीप कुमार पाण्डेय

वक्त के साथ हम नहीं थे
क्या सचमुच !
हम नहीं
शायद हमने आपने आपको
कहीं छोड़ दिया
या फेंक दिया
कल का बेडिया
पार्लियामेंट में बैठता है
हम कहते हैं
अच्छी बात है
बड़े-बड़े खेल खेलता है
कभी- कभी नाचता भी है
अंधाधुंध गोलियां भी
चलवाता है
जन -मन में आक्रोश
भरता है
संसद में आसानी से बैठ गया
कालेज के जमाने की
हड़प नीति
मारामारी रास आ गई
अब उसे किसी को उठवाना
ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेना बलपूर्वक
अहम का हिस्सा हो गया
आरक्षण और धार्मिक कट्टरवाद ने शोषण का रास्ता खोल दिया
संविधान में गैरबराबरी
का फ़ायदा इन्हीं को ज़्यादा मिला
संविधान भी वैशाखी के सहारे टेकता रहा
आमजन आपसी कलह
या फिर भूख से पीड़ित
अव्यवस्था में जीने के लिए अभिशप्त
जिस शिक्षा के बल पर
देश का चतुर्दिक विकास
संभव था
भावी नेताओं की
सत्ता लोलुपता
षड्यंत्र ने , धाराशाई कर दिया
जनतंत्र
जनमत को।
पराजित मन
इस मोड़ से उस मोड़ पर
भागता रहा
वक्त की कुंजी से अनभिज्ञ
शायद कुछ मेरे हाथ में नहीं था
वक्त की कठपुतली था
बड़े तुर्रम खां
बड़े सत्ताधारी
बड़ी -बडी मशालें
और गगनचुंबी परचम
सभी वक्त के साथ लुप्त हो गए
टूट गई
ढह गई
दूसरे चौराहे पर
कुछ निशानदेही के
शव मिले
किसके थे ये ?
सवाल मन में कौंध रहा ?
मन कचोट रहा
उत्तर ढूंढ रहा
वक्त की रफ़्तार में
इन हादसों से
पूरा जनतंत्र
सहम उठा
संवेदनहीनता
रोज़ का हिस्सा बन चुकी थी !
वक्त का आलम था
दिनदहाड़े रोज़ गोलियां चलना
क़ब्ज़ा
हफ़्ता
दिनचर्या का हिस्सा थी
बहुत पहले डकैत
रात में लूटते थे
वक्त के साथ छुपे हुए
डकैत की हस्ती मिट गयी
आधुनिक डकैत खुलेआम
बीचोंबीच चौराहे पर खड़े
गोलियां चलाते हैं
उनका सरदार संसद में बैठा
कानून की धज्जियां उड़ाता है
आमजन की चाबी और लगाम
सब गिरवी है
आचार व्यवहार
शिक्षा,खानपान
सब पर औद्योगिक
मार
तय है
कला, संगीत, सौंदर्य
वस्तु और व्यापार में लिप्त हैं
वक्त को लांघ जाना हमारी
फितरत में समा गया है
हम मैले – कुचैले
हमारा खून गन्दा हो चुका है
हमारी धमनियां हमारे नियंत्रण से
बाहर हैं
जंगल के भेड़ियों,चीते,शेर से भय
कम लगता था
कई मोड़ चक्कर काट चुका था
बिच्छू औ सांप को भी देख चुका था
कोयल औ मोर को भी देख चुका था
भय औ उन्माद का मिश्रित मुद्रा थी
ट्यूबवेल व नालियों के बहते
जल प्रवाह से
पत्तों की सरसराहट से
झींगुर व जुगनू की सदायें
संध्या ह्रदय पर अमिट छाप छोड़तीं
जीवन की नौका को संचारित करतीं
लेकिन आज भेड़िया,शेर, चीते
अपनी जगह पर नहीं है
वह मानव में पैठ कर गए हैं
हर दूसरा मानव
पशु, पक्षी की प्रजाति में शामिल हो चुका है
अब यह मानव पशु औ पक्षी की सीमा
का उल्लंघन कर चुका है
ईट, पत्थर, आमिष सेवन में लिप्त है
मैं दूसरे औ तीसरे मोड़ को पार कर चुका हूं
वक्त की मार से
हमारी समूची मानवजाति
विध्वंस और विनाश की ओर
तेज़ी से बढ़ रही है !!
और हम चुपचाप देखते ही जा रहे ।

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