
शरद पूर्णिमा की शुभ बेला, जन्मे रत्नाकर नाम।
वन–वन भटकें, लूटपाट में, जीवन था अंध-धाम॥
उद्दंड वृत्ति त्याग न पाये, मन था मद से चूर।
एक दिवस घटा वह चमत्कृत, पलट गये भरपूर॥
ऋषि नारद ने दी जो शिक्षा, गूँज उठा मन-धाम।
“राम” नाम जपते-जपते, मिट गया सब ग्राम॥
वन में जाकर ध्यान लगाया, तन पर मिट्टी छाई।
दीमक ने जो घर बनाया, तप की प्रतिमा पाई॥
रत्नाकर से वाल्मीकि बन, ज्ञान हुआ प्रकाशित।
तमसा तट पर देख विहंगम, हृदय हुआ उद्विग्नित॥
क्रौंच-वध देख अश्रु झरे जब, दया हृदय में जाग।
कंठ फूटा श्लोक स्वरूप, कवित्व मिला अनुराग॥
“मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम:”— वाणी में रस छाया।
रामायण का प्रथम श्लोक तब, जग में जन्मा पाया॥
राम जन्म से पूर्व ही, रच डाली कथा महान।
अमर हुआ काव्य अमर कवि, वाल्मीकि का सम्मान॥
भारतीय संस्कृति में उनका, जग में गूँजे नाम।
कवि शिरोमणि वाल्मीकि को, शत-शत नमन प्रणाम॥
डाॅ सुमन मेहरोत्रा
मुजफ्फरपुर, बिहार



