आलेख

महर्षि वाल्मीकि जयंती : आत्मपरिवर्तन और सांस्कृतिक चेतना का महापर्व

डॉ सुरेश जांगडा

भारतीय संस्कृति ऋषि-मुनियों, संतों और कवियों के आदर्शों से आलोकित है। इन महापुरुषों ने अपने जीवन और साहित्य से न केवल धर्म और अध्यात्म को समृद्ध किया, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना को भी नई दिशा प्रदान की। इन्हीं में से एक हैं महर्षि वाल्मीकि, जिन्हें आदिकवि कहा जाता है। उन्होंने संसार को रामायण जैसा अद्वितीय महाकाव्य प्रदान किया। महर्षि वाल्मीकि जयंती केवल उनके जन्म का उत्सव नहीं है, बल्कि यह उस चेतना का स्मरण है जो मानवता को आत्मपरिवर्तन, मर्यादा और न्याय के मार्ग पर ले जाती है।

वाल्मीकि का मूल नाम रत्नाकर माना जाता है। किंवदंतियों के अनुसार वे प्रारंभ में एक व्याध (शिकारी) थे, जो हिंसा और लूटपाट में लिप्त रहते थे। लेकिन जब संत नारद ने उन्हें आत्मचिंतन के लिए प्रेरित किया और यह बताया कि पापों का बोझ दूसरों पर नहीं डाला जा सकता, तब उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। उन्होंने गहन तपस्या की और “राम-राम” नाम का जाप करते हुए वाल्मीकि के रूप में प्रख्यात हुए। यह जीवन-परिवर्तन हमें यह संदेश देता है कि कोई भी व्यक्ति जन्म से महान नहीं होता, बल्कि उसके कर्म ही उसकी पहचान बनाते हैं।

वाल्मीकि की सबसे महान कृति रामायण है, जिसे आदिकाव्य कहा भी कहा जाता है। यह केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं बल्कि जीवन का महाग्रंथ है। इसमें श्रीराम को “मर्यादा पुरुषोत्तम” के रूप में प्रस्तुत किया गया है। सत्य, धर्म, नारी सम्मान, भ्रातृ-भाव, आदर्श शासन और जनकल्याण इसके केंद्रीय विषय हैं। इसमें काव्य की सभी विधाओं का समावेश मिलता है – शृंगार, करुण, वीर और शांत रस की झलक स्पष्ट है। वाल्मीकि ने न केवल कथा कही, बल्कि चरित्र निर्माण का आदर्श स्थापित किया। यही कारण है कि रामायण केवल भारत ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण एशिया की सांस्कृतिक धारा में रच-बस गई है।

महर्षि वाल्मीकि का जीवन और साहित्य सामाजिक समानता और सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक है। उनका स्वयं डाकू से ऋषि बनने का उदाहरण यह दर्शाता है कि मनुष्य का सुधार संभव है। उन्होंने समाज को यह सन्देश दिया कि जाति या जन्म से नहीं, बल्कि साधना और कर्म से व्यक्ति महान बनता है। रामायण में स्त्री के सम्मान को विशेष स्थान दिया गया है। सीता का चरित्र नारी गरिमा और धैर्य का प्रतीक है। भाई-भाई के प्रेम, गुरु-शिष्य संबंध और आदर्श परिवार की भावना से समाज को स्थिरता और मर्यादा का संदेश मिलता है।

महर्षि वाल्मीकि का दर्शन यह है कि जब तक व्यक्ति स्वयं को नहीं बदलता, तब तक समाज में वास्तविक परिवर्तन संभव नहीं। रत्नाकर का वाल्मीकि बनना इस बात का प्रमाण है कि आत्मपरिवर्तन से ही सामाजिक परिवर्तन की राह निकलती है। आज भी समाज हिंसा, भ्रष्टाचार और असमानता से पीड़ित है। ऐसे में वाल्मीकि का संदेश यही है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर झाँके, पाप और दुर्बलताओं को त्यागे, तभी राष्ट्र और समाज उन्नति कर सकते हैं।

आधुनिक युग में भौतिकता और स्वार्थ प्रमुख होते जा रहे हैं। परिवार और समाज में टूटन, भ्रष्टाचार और असमानता जैसी समस्याएँ सामने हैं। वाल्मीकि का जीवन यह बताता है कि प्रत्येक मनुष्य आत्मशोधन और साधना द्वारा अपने जीवन को नई दिशा दे सकता है। उनकी कृति रामायण आज भी राजनीति, समाज और धर्म सभी क्षेत्रों में मार्गदर्शक है। “रामराज्य” की संकल्पना आज भी आदर्श शासन का प्रतीक मानी जाती है।

महर्षि वाल्मीकि केवल एक कवि नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना के अग्रदूत हैं। उन्होंने यह सिद्ध किया कि साहित्य का उद्देश्य केवल सौंदर्य नहीं, बल्कि समाज को दिशा देना है। महर्षि वाल्मीकि जयंती का वास्तविक अर्थ यही है कि हम उनके जीवन और साहित्य से प्रेरणा लें और आत्मपरिवर्तन द्वारा समाज और राष्ट्र को श्रेष्ठ बनाने की दिशा में अग्रसर हों।
डॉ सुरेश जांगडा
राजकीय महाविद्यालय सांपला, रोहतक (हरियाणा)

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