साहित्य

शरद की चांदनी

आशा बिसारिया

फैली शरद की चांदनी,मन को लुभा गयी
यह ठंडी -ठंडी रुत भी सिहरन जगा गयी
फैली………
दिन में कमल विहंसते औ’रात में कुमुदिनी
झरता है हरसिंगार , क्या बहार छा गयी
फैली……….
आकाश नीला-नीला,बादल के नहीं टुकड़े
त्यौहार लगे सजने , यह रुत बता गयी
फैली………..
फैली है गंध चहुंँदिशि,घर-घर हवन कलश हैं
मां ले सवारी सिंह की , धरती पे आ गयी
फैली………..
आया दशहरा मेला , रावण सजे खड़े हैं
जलती सदा बुराई,सच की जीत भा गयी
फैली……..
बालक चढ़े मुण्डेरों , लेकर के सूई-धागे
सुईयां लगे पिरोने , याद रीत आ गयी
फैली……….
कहीं हो रहेहैं दंगल,कहीं शायरी की महफिल
कहीं खीर बंट रही है , शरद पूनो आ गयी
फैली………..
जिसने विरह द्रवित हो,रच डाली थी रामायण,
ऐसे ऋषि वाल्मीकि की , जयन्ती आ गयी
फैली ………
इस ठंडी-ठंडी रुत में,होती है जब अमावस
दीपों की अवलि ले के , दीवाली आ गयी
फैली…………
हर ओर लगीं सजने ,कंडीलें रंग – बिरंगी
सैलाब रौशनी का है ,फुलझडियां भा गयीं
फैली…………..
आशा बिसारिया चंदौसी,उ.प्र.

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