
कथा
पुराने समय की बात है। सतयुग का समय था, जब राजाओं के भीतर भी ब्रह्मतेज की चाह जाग उठती थी। कौशिक वंश में जन्मे राजा विश्वामित्र जी अपने पराक्रम, नीति और न्यायप्रियता के लिए प्रसिद्ध थे। उनके पास सत्ता, वैभव, यश और प्रजा का प्रेम सब कुछ था, किंतु उनके मन के किसी कोने में एक प्रश्न सदा उठता रहता था कि क्या केवल बल और कर्म से ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया जा सकता है?
एक दिन वे अपने राज्य की सीमाओं का निरीक्षण करते हुए महर्षि वशिष्ठ जी के आश्रम पहुँचे। वहाँ का दृश्य देखकर वे चकित रह गए।
साधारण से दिखने वाले उस आश्रम में देवताओं के समान तेज झलक रहा था। वहाँ उन्होंने एक अद्भुत गाय देखी, जिसका नाम नन्दिनी था, जो ऋषियों के लिए स्वयं ही अमृततुल्य भोजन उत्पन्न कर देती थी। विश्वामित्र जी ने सोचा, “यदि यह गाय मेरे राज्य में हो, तो मेरे सैनिकों और प्रजाजनों का कल्याण हो जाएगा।”
उन्होंने वशिष्ठ जी से विनम्र होकर कहा, “मुनिवर, यह गौ मुझे दे दीजिए। इससे मैं अपने राज्य की सेवा और भरण-पोषण कर सकूँगा।”
वशिष्ठ जी ने शांत स्वर में उत्तर दिया, “राजन, यह गौ कोई सामान्य पशु नहीं है। यह मेरे तप और यज्ञ का फल है। इसे केवल ब्रह्मतेज ही धारण कर सकता है, राजतेज नहीं।”
राजा का अभिमान आहत हुआ। उन्होंने बलपूर्वक गाय को ले जाने का प्रयत्न किया। परंतु वशिष्ठ जी ने केवल एक “ऊँ” का उच्चारण किया और उनके शब्द की शक्ति से विश्वामित्र जी की विशाल सेना क्षणभर में नष्ट हो गई।
विश्वामित्र जी स्तब्ध रह गए। उन्हें उस क्षण यह बोध हुआ कि राजबल सीमित है, परंतु तप का बल अनंत है।
उसके बाद विश्वामित्र जी ने राज्य, सुख, वैभव आदि सबका त्याग कर दिया। उन्होंने राजपद छोड़ दिया और वन की ओर प्रस्थान किया। न वस्त्रों का मोह, न महलों की स्मृति, केवल एक ध्येय “ब्रह्मतेज की प्राप्ति” को ही मन में ठान लिया।
अब विश्वामित्र जी ने कठोर तपस्या आरंभ की। वर्षों तक उन्होंने न जल ग्रहण किया, न अन्न। वे ध्यान में लीन होकर अग्निहोत्र करते रहे। उनकी तपस्या से देवता प्रसन्न हुए और उन्हें ‘राजर्षि’ की उपाधि दी, परंतु विश्वामित्र जी को भीतर से संतोष नहीं हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि उनका प्रायश्चित अधूरा है। उन्होंने प्रण किया, “मैं तब तक तप करूंगा, जब तक भीतर का अहं पूरी तरह जल न जाए।”
इंद्र देव उनकी बढ़ती शक्ति से भयभीत हो उठे। उन्होंने मेनका अप्सरा को भेजा ताकि वह विश्वामित्र जी का ध्यान भंग कर सके। मेनका के सौंदर्य ने विश्वामित्र जी के मन में हलचल मचा दी और वे कुछ वर्षों तक सांसारिक मोह में बंधे रहे, किंतु जब उन्हें अपने विचलन का बोध हुआ, तो उन्होंने स्वयं को दंडित किया। उन्होंने कहा, “मैंने तप की पवित्रता खो दी।
अब मैं अपने ही दोष का प्रायश्चित करूंगा।”
उन्होंने फिर से इस बार और भी कठिन तपस्या आरंभ करने के लिए एक पर्वत की चट्टान पर बैठकर ध्यान लगाया। वर्षा, धूप और शीत में भी अचल बैठे रहे। जब शरीर थरथराता, वे कहते, *“यह देह मिटे, पर मन न डिगे।”* उनका तप इतना प्रखर हो गया कि देवताओं की सभा में अग्नि ने कहा, “अब यह तप शरीर का नहीं, आत्मा का प्रकाश बन गया है।”
वर्षों बाद जब उनके भीतर का अहं पूर्ण रूप से भस्म हो गया, वे पुन: वशिष्ठ जी के आश्रम पहुँचे। पहले की तरह उन्होंने सिर झुकाया और विनम्रता से कहा, “हे महर्षि, क्या मैं अब भी वही विश्वामित्र हूँ, जिसने बल से नन्दिनी माँगने का प्रयास किया था?”
वशिष्ठ जी ने नेत्र मूँदे और दिव्य दृष्टि से देखा। बोले, “अब तुम वही नहीं रहे। तुमने अपने भीतर के अहंकार को तप की ज्वाला में भस्म कर दिया है, अब तुम ब्रह्मर्षि हो।”
उस क्षण विश्वामित्र जी के नेत्रों से अश्रु बह निकले। वह तप, जो कभी कठोरता का प्रतीक था, अब आत्मशुद्धि का दीपक बन चुका था। उनके भीतर का अहंकार विलीन हो चुका था और उसकी जगह केवल शांत प्रकाश रह गया था।
विश्वामित्र जी की यह कथा आज भी स्मरण दिलाती है कि “तप” केवल कष्ट सहने का नाम नहीं, बल्कि आत्मा को शुद्ध करने की प्रक्रिया है। यह हमें हमारे दोषों से मुक्त कर ब्रह्म के समीप ले जाती है। यही पंच प्रायश्चित का एक महान आयाम है, जहाँ मनुष्य तप के माध्यम से स्वयं को पवित्र करता है और अंततः सत्य से एकाकार हो जाता है।
✍️योगेश गहतोड़ी “यश”




