
कहानी
नन्ही सी कली की पहली भोर थी, जब धरा पर मैंने अपनी आखें खोली थीं।
टिम टिम आखों से देखा तब, आते ही धरा पर कितने रिश्तों में बंध गई थी, *माँ, पापा, दादा, दादी*!
मेरे आने से खुशी की लहर आ गई थी, पर अचानक एक आवाज ने कानों में आकर सबको चौंका दिया,
*चांद का टुकड़ा है,*
पर
*एक कज लेकर आई है।*
दादी की आवाज थी।
माँ ने कंपकंपाते हाथों से मुझे उठाया था, छाती से लगाया था। दोनों हाथों को देखा और नजर गई मेरे नन्हें पांव पर। माँ सहमी।
फिर एक आवाज आई *अरे गहनवा पैर है*!
माँ, बाबा कुछ बोल नहीं पा रहे थे, और अंतर्मन की पीड़ा संभालते जा रहे थे।
और
मौन पड़ी मैं देख रही थी, सब चिंतित मेरी किस्मत पर ??????
किन्तु मेरी माँ और बाबा का दृढ, संकल्पित विश्वास, जिसने मेरे जीवन को दी थी आस, माँ की दृढ़ता और विश्वास की मेहनत रंग लाई थी खास। बारह महीने की मैं धरा पर चल पाई थी।
और
आज मैं एक कार्याधिकारी हूँ।
बाबा के स्नेह में पगी, माँ की दुलारी हूँ।
*ये हूँ मैं*!
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स्वरचित, मौलिक।
लेखिका: सीमा शर्मा ‘मंजरी’।
मेरठ, उत्तर प्रदेश।
संपर्क सूत्र: 7982532888


